पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५६

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बौद्ध-धर्म-दर्शन अवीचि । लोक-पातु लोक-धातु तीन हे-कामघातु, रूपधातु और श्रारूप्यधातु । कामघातु का अर्थ काम-संप्रयुक्त धातु है। कामधातु के अन्तर्गत चार गति साकल्येन है, देवगति का एक प्रदेश है, और भाजनलोक है। भाजनलोक में सत्व निवास करते हैं। चार गति ये है-नरक, प्रेत, तिर्यक् और मनुष्य । बुद्धघोष के अनुसार असुर-काय भी एक गति है। नरक ( निस्य), प्रेत, और तिर्यक् अपाय भूमि है । कामधातु में छः देव- निकाय है। मनुष्य और छः देवनिकाय काम-सुगति-भूमि है। का देवनिकाय इस प्रकार हैं:-चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिंश, याम, तुषित, निर्माणरति, और परनिर्मितक्शवर्ती नरक-द्वीप भेद से कामधातु में बीस स्थान हैं।

-पाठ नरक, चार द्वीप,

छः देवनिकाय, प्रेत, और तिर्यक् । अाठ नरक ये है :-संजीव, काल-सूत्र, संघात, रोख, महारौरव, तपन, प्रतापन, चार द्वीप ये हैं: जम्बु, पूर्व-विदेह, अवरगोदानीय, और उत्तरकुरु । अतः अवीचि से परनिर्मितवशवर्ती तक बीस स्थान होते हैं। बुद्धघोष की सूची में नरक-भेद परिगणित न कर केवल ग्यारह प्रदेश हैं। कामधात से ऊय रूपधातु के सोलह स्थान हैं। इस धातु में चार ध्यान हैं। स्थविर- धादियों के अनुसार चार या पांच ध्यान होते हैं। चतुर्थ से अन्यत्र प्रत्येक ध्यानलोक त्रिभूमिक है। चतुर्थ ध्यान अष्टभूमिक है । रूपधातु में रूप है, किन्तु यह धातुकाय से वियुक्त है । श्रारूप्यधातु में स्थान नहीं है । वस्तुत: अरूपी धर्म अदेशस्थ है, किन्तु उपपत्तिवश यह चतुर्विध है :-श्राकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्यायतन, श्राकिचन्यायतन, नवसंज्ञानासंज्ञायतन (भवान)। उपपत्ति से कर्म:निवृत जन्मान्तर को स्कन्ध-प्रवृत्ति समझना चाहिये । एक ही क्रम से इन विविध अायतनों का लाभ नहीं होता। यह श्रायतन एक दूसरे से ऊर्ध्व है, किन्तु इनमें देशकृत उत्तर और अधर भाव नहीं हैं। जिस स्थान में समापत्ति से समन्वागत आभय का मरण होता है, उस स्थान में उक्त उपपत्ति की प्रवृत्ति होती है । अभिधर्मकोश में इन विविध भूमियों का सविस्तर वर्णन है । हम यह वर्णन न देंगे,किन्तु हमको यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्रतीत्य-समुत्पाद का सब लोकों पर प्रभाव है । सब गतियां कर्मवश होती है। जिस प्रकार बीज से अंकुर और पत्र होते हैं, उसी प्रकार केशवश कर्म और वस्तु होते हैं । भवचक्र अनादि है। लोकों का विवर्तन-संवर्तन होता रहता है। जब सत्वों के सामुदायिक कर्म क्षीण होते हैं, तब भाजनलोक का क्षय होता है । पुनः जब आपक कर्मवय अनागत भाजनलोक के प्रथम निमित्त प्रादुर्भूत होते हैं, तब वायु की वृद्धि होती है, और पीछे सर्व भावन की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक कल्प में बुद्ध का प्रादुर्भाव होता है। उनका उत्पाद सत्वों का निर्वाण में प्रवेश कराने के लिए होता है। एक ही समय में दो बुद्ध नहीं उत्पन्न होते। सूत्रवचन है कि यह स्थान है कि लोक में दो तथागत युगपत् हो । एक भगवत् सर्वत्र प्रयुक्त होते हैं। वहाँ एक