पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६

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तदनन्तर उक पंचज्ञान में से प्रत्येक ज्ञान पंचधात, पंच इन्द्रिय तथा पंच पायतनों के वासना-भेद से बीस प्रकार का है। काय भी बीस अंगुलियों से परिपूर्ण होता है । यह विंश- स्थाकार-संबोधि है। इसका संबन्ध सैमोग-काय के साथ है। यहाँ तक का विकास मातृ-गर्भ में होता है। इसके बाद गर्भ से निकमण अर्थात् प्रसव होता है। उसी समय मायाबाल के सहश अनन्त भावों की संवित्तियाँ होती हैं। ज्ञान में विशति भेदो के स्थान पर अनन्त प्रकार के भेदो का स्फुरण होता है । इसका नाम मायाजाल-अभिसंबोधि है। यह निर्माण-काय से संश्लिष्ट है। मायाजाल के शान के उदय होने पर ही समझ लेना चाहिये कि उत्पत्ति-क्रम समास हो गया। परमशुद्ध सत्ता से मायाराज्य में अवतरण का यही इतिहास है । वस्तुतः माया-गर्भ में ही रचना होती है। काम-कलातस का भी यही रहस्य है । शुक्ल-बिन्दु तथा रक्त-बिन्दु नाम के दो कारण-बिन्दु कार्य-बिन्दु के रूप में परिणत होते है। आगे की सष्टि इस कार्य- बिन्दु का ही क्रम-विकास है। इससे स्पष्ट है कि सृष्टि के प्रारंभ में श्रानन्द ही आनन्द है। इसका नाम केवल सुखसंवित्ति है । उपनिषद् में भी "प्रानन्दाद्ध्यैव खल्विमानि भूतानि जायन्ते" के द्वारा यही कहा गया है। यह वस्तुतः महाक्षण की स्थिति है । सृष्टि में मायाजाल के अनन्त नाग-पाश का विस्तार है। श्रानन्द टूटता है, और नाना प्रकार के दुःखों का प्राविर्भाव होता है। इस प्रत्यावर्तनकाल में माया को छिन कर पुनः उस एक महाक्षण में लौटना पड़ता है। निर्माण-काय से सहम-काय तक का श्रारोहय होता है । प्रत्यावर्तन की धारा में एकक्षण-संबोधि को अन्तिम विकास माना जाता है। वस्तुतः इसी क्षण में विश्वातीत महाशकि अवतीर्य होती है, और लौटती भी है। योगी गर्भाधान-क्षण को ही उत्पत्ति-क्षण मानते हैं, परन्तु अयोगी की दृष्टि में गर्भ से निष्क्रमण-क्षण या नाहीच्छेद-क्षण ही उत्पत्ति-क्षण है। उसी क्षण में माया अर्थात् वैष्णवी-माया का स्पर्श होता है। इसके बाद ही श्वास-प्रश्वास की क्रिया प्रारंभ होती है । देहरचना के मूल में है क्षर- चिन्दु अथवा श्रालय-विधान । यह अशुद्ध-विज्ञान है। यही जन्म लेता है। दो कार्य-बिन्दु एक साथ रह कर देहरचना करते हैं। उत्पन्न-कम वस्तुतः श्रारोह-कम है। एक दृष्टि से इसे संहार-क्रम कहा जा सकता है। दूसरी दृष्टि से इसे ही सष्टि-कम भी कह सकते हैं। जैसे माया से ब्रह्म में स्थिति-लाम करना एक पारा है, ठीक इसी प्रकार अमावस्था का भी एक विकास-व्यापार है। इससे परमात्मा तथा भगवान् पर्यंत भावों की रंजना होती है। प्रकृत में भी प्रायः ऐसा ही समझना चाहिये। माया के प्रभाव से प्रति दिन २१ हजार ६ सौ श्वास-प्रश्वासों की क्रिया होती है। प्रत्यावर्तन की अवस्था में भी ठीक उसी प्रकार एकक्षण-अभिसंबोधि की अवस्था होती है। इस अवस्था में प्राण वायु शान्त होती है। इसी लिए चित्त महाप्राण में स्थिर होता है, और स्थूल इन्द्रियों की क्रिया नहीं रहती। इस अवस्था में दिव्य इन्द्रियों का उदय होता है। स्मूल-