पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६७

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पोडश अध्या वैमाषिक कहता है कि 'प्रतीता और अनागत का वर्तमान के सदृश अस्तित्व है। वस्तुतः धर्मों का निश्चय ही गंभीर है। काय-विज्ञप्ति-सौत्रान्तिक के मत में कर्म चेतना है। 'काय-कर्म अभिप्राय काय द्वारा विज्ञापन' से नहीं है, किन्तु एक काय-संचेतना से है। यह संचेतना काय से संबन्ध रखती है, और काय को इंजित करती है। सर्वास्तिवादी प्रश्न करता है कि वह क्या वस्तु है, जिसे आप के अनुसार 'काय-विज्ञप्ति संशा से ज्ञापित किया जाता है १ सौत्रान्तिक उत्तर देते हैं कि काय विज्ञप्ति संस्थान है, किन्तु संस्थान द्रव्य नहीं है । काय-कर्म वह चेतना है, जो विविध प्रकार से काय की प्रणेत्री है । यह काय-द्वार को श्रालंबन बना प्रवृत्त होती है, और इसलिए काय-कर्म कहलाती है। दो प्रकार की चेतना है। पहले प्रयोग की अवस्था है। इसमें एक चेतना का उत्पाद होता है, जो शुद्ध चेतना है-"यह आवश्यक है कि मैं इस-इस कर्म को करूँ।" इसे सूत्र चेतना-कर्म की संज्ञा देता है। यहाँ चेतना ही कर्म है। पीछे शुद्ध चेतना की इस अवस्था के अनन्तर पूर्वकृत संकल्प के अनुगर कर्म करने की चेतना का उत्पाद होता है । काय के संचालन या वाग्ध्वनि के निसरण के लिए यह चेतना होती है। इसे सूत्र 'चेतयित्वा कर्म' कहता है [ अभिधर्म कोश, ४॥ पृष्ठ १२-१३ ]। अविशति-सौत्रान्तिक 'अविज्ञप्ति? का भी अभाव मानते हैं । वैभाषिक कई युक्तियाँ देकर 'अविज्ञप्ति का अस्तित्व व्यवस्थापित करता है । सौत्रान्तिक इनका खंडन करता है । अभि- धर्मकोश [ 1 पृष्ठ १४-२५ ] में यह विस्तृत व्याख्यान पाया जाता है 1 क्षणिक्याव-सौत्रान्तिक सन्ततिवादी और वणिकवादी है । सर्व संस्कृत क्षणिक है । 'क्षण' शब्द का अभिधान अात्मलाभ के अनन्तर विनष्ट होना है । वणिक वह धर्म है; जिसका क्षण है । जैसे दण्डिक वह है, जो दण्ड का वहन करता है । श्रात्म लाभ के अनन्तर संस्कृत का अस्तित्व नहीं होता। यह उस प्रदेश में विनष्ट होता है, जहाँ इसकी उत्पत्ति होती है। यह उस प्रवेश से दूसरे प्रदेश में नहीं जा सकता | यह विनाश अकस्मात् होता है । यह अहे- तुक है। जो सहेतुका है, वह कार्य है। विनाश अभाव है। अभाव कैसे कार्य होगा। इसलिए विनाश अहेतुक है। इसलिए संस्कृत उत्पत्ति के अनन्तर ही विनष्ट होता है । यदि यह उत्पन्नमात्र न हो तो यह पीछे विन! न होगा, क्योंकि यह अपारवर्तित अवस्था में रहता है [ अभिधर्मकोश, पृष्ठ ४]| असंग महायानसूत्रालंकार [ १८ वा अध्याय, बोधिपक्षाधिकार, पु. १४६-१५४ ] में क्षणिकवाद की परीक्षा करते हैं। यह कहत हैं . सर्व संस्कृत क्षणिक है। इसकी सिद्धि कैसे होती है ? असंग कहते है कि क्षणिकाव के बिना संस्कारों की प्रवृत्ति का योग नहीं है। 'प्रवृत्ति प्रबधवश 'वृत्ति को कहते हैं। प्रतिक्षण उत्पाद और निरोध के बिना यह प्रवृत्ति अयुक्त है। यदि कालान्तर स्थित रहकर पूर्व के निरोष और उत्तर के उत्पाद से प्रबन्धेन वृत्ति इष्ट है, तो प्रबन्ध के अभाव में उसके अनन्तर प्रवृत्ति न होगी । पुन: प्रबन्ध के बिना उत्पन्न