पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६९

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षोडश अध्याय कैसे होता है ? निरोध से । यदि उसका वैसे ही श्रवस्थान होता, तो अन्त में निरोध न होता, क्योंकि श्रादि क्षण से विशेष नहीं होता। इसलिए यह अवधारित नहीं होता कि यह वही है । परिणाम की उपलब्धि से भी परिणाम का अन्यथाल्य है । यदि वह श्रादि से ही प्रारब्ध न होता, तो श्राध्यात्मिक और बाह्य भावों के अन्त में परिणाम की उपलब्धि नहीं होती। अत: आदि से ही अन्यथात्व का प्रारंभ हो जाता है, और यह क्रम से वृद्धि को प्राप्त हो अन्त में व्यक्त होता है। जैसे क्षीर दधि की अवस्था में व्यय होता है, किन्तु क्योंकि सूक्ष्म होने से इस अन्यथात्व का परिच्छेद नहीं होता । इमलिए मादृश्य की अनुवृत्ति से ऐमा ज्ञान होता है कि यह वही है, और क्योंकि प्रतिनण अन्यथाल्य होता है. इसलिए क्षणिकत्व सिद्ध है । यह कैसे ? हेतुत्व और फलस्त्र से, श्रर्थान् क्योंकि हेतु क्षणिक है, और फल क्षणिक है । यह सिद्ध है कि चित्त क्षणिक है । अन्य संस्कार, चक्षु-रूपादि उसके हेतु हैं। अत: वह भी क्षणिक सिद्ध हुए। अक्षणिक से क्षणिक नहीं हो सकता, जैसे नित्य से अनिस्य नहीं होता । दूसरी श्रोर सब संस्कार चित्त के फल भी हैं । वस्तुतः चित्त का श्राधिपत्य संस्कारों पर है। भगवान् ने कहा है --"चित्त से यह लोक नीत होता है, चित्त से परिकृष्ट होता है !" यह भी कहा है कि नाम-रूप विज्ञान-प्र-यय है। अतः वह चित्त का फल है । अत: संस्कार चित्त के ममान क्षणिक है । यह सिद्ध करके कि सत्र सरकार क्षणिक हैं, असंग सिद्ध करते हैं कि आध्यात्मिक संस्कार क्षणिक हैं । जितने बौनिकाय हैं, वे सब मन को अविच्छिन्न हेतु-फल-परंपग मानते हैं, और यह भी मानते हैं कि हेतु-फल का उत्पाद-निरोध प्रतिक्षण होता है । इसके साधन असंग वही हेतु देते हैं, जिन्हें पूर्व अानायर्यों ने दिया है । इसी प्रकार वह बाह्य संस्कारों के, अर्थात् चार महाभूतों के और पविध अयाद के क्षणिकत्व को सिद्ध करते हैं। असंग दार्श- निक युक्तियों के अतिरिक्त एक और मुक्ति देते हैं । वस्तुतः बुद्ध ने संस्कारों की अनित्यता देशित की है । असंग कहते है कि अक्षणिकवादी से पूछना चाहिये कि अापको अनित्यत्व तो इष्ट है, फिर क्षणिकत्व क्यों नहीं इ: है ? यदि वे यह कहें कि अन्यत्व का ग्रहण प्रतिक्षण नहीं होता, तो उनसे यह कहना चाहिये कि प्रदीपादि का क्षणिकभाव आपको क्यों इष्ट है, जब निश्चलावस्था में अन्यत्व का ग्रहण नहीं होता। यदि उनका यह उत्तर हो कि पूर्ववत् पश्चात् का अग्रहण है, तो उनसे कहना चाहिये कि संस्कारों का भी ऐसा ही क्यों नहीं मानते। यदि वे यह कहें कि प्रदीपादि के लक्षण अन्य हैं, और संस्कार के उनसे अन्य हैं, तो यह उत्तर होना चाहिये कि वैलक्षण्य दो प्रकार का है-स्वभाव-बैलक्षण्य और वृत्ति-वैलक्षण्य । यदि जो वैलक्षण्य श्रापको अभिप्रेत है, वह स्वभाव है, जो दृष्टान्त युक्त है, क्योंकि किसी का स्वभाव उसका दृष्टान्त नहीं होता । यथा-प्रदीप प्रदीप का दृष्टान्त नहीं होता । और यदि वृत्ति-वलक्षण्य है,तो प्रदीप का दृष्टान्त युक्त है, क्योंकि लोक में प्रसिद्ध है कि यह क्षणिकत्व की अनुवृत्ति करता है । पुनः उनसे पछना चाहिये कि क्या श्राप मानते हैं कि यान के खड़े रहने पर जो याना- रूढ़ है, वह जाता है ? यदि वे कहें कि 'नहीं, तो उनसे कहना चाहिये कि चतुरादि के