पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७०

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३०२ बौद्ध दर्शन अवस्थान करने पर तदाभित विशान प्रबन्धेन गमन करता है, यह कहना अयुक्त है। यदि उनका यह उत्तर हो कि क्या हम नहीं देखते कि वति का अवस्थान होता है, और वर्ति- सनिभित प्रदीप का प्रबन्धेन गमन होता है, तो उनसे कहना चाहिये कि 'नहीं, प्रबन्धेन गमन नहीं देखा जाता, क्योंकि वर्ति में प्रतिक्षण विकार उत्पन्न होता है। यदि वे यह उत्तर दें कि यदि संस्कार क्षणिक है, तो जिस प्रकार प्रदीप का क्षणिकत्व सिद्ध है, उसी प्रकार संस्कारों का क्षणिकाव क्यों नहीं सिद्ध है। हमारा उनको यह उत्तर होगा कि संस्कारों का विपर्यास-वस्तुत्व है, क्योंकि इनकी वृत्ति सदृश सन्तति-प्रबन्ध में होती है, इसलिए इनका क्षणिकत्व जाना नहीं बाता। क्योंकि उनका अपरापरत्व है, इसलिए यह विपर्यास होता है कि यह वही है। अन्यथा अनित्य में नित्य का विपर्यास नहीं होगा। इस विपर्यास के अभाव में संक्लेश न होगा, फिर व्यवदान कहाँ से होगा । इस विचार-विमर्श से सिद्ध होता है कि सब संस्कारों का क्षणिकत्व है। कृतीय पान ( मुख) वैभाषिकों के अनुसार तृतीय ध्यान का 'सुख' प्रथम और द्वितीय ध्यान के 'सुख' से द्रव्यान्तर है, और इसलिए एक नया अंग है । सौत्रान्तिक प्रश्न करते है कि ऐसा क्यों है ? वैभाषिक का उत्तर है कि प्रथम दो ध्यानों में 'सुख' से 'प्रश्रन्धिर अभिप्रेत है । यह सुख प्राब्धिमय है ('प्रश्रन्धिः कर्मण्यता है )। तृतीय में सुखावेदना है । वास्तव में पहले दो ध्यानों में सुखेन्द्रिय की संभावना नहीं है, क्योंकि इन ध्यानों का सुख कायिक-सुख नहीं हो सकता । उस सत्व में जो ध्यान-समापन्न होता है, पंच इन्द्रिय-विज्ञानों का प्रभाव होता है । इन ध्यानों का सुख चैतसिक सुख नहीं हो सकता, क्योंकि इन ध्यानों में 'प्रीति होती है । किन्तु 'प्रीति' सौमनस्य है.. और यह माना नहीं जा सकता कि प्रीति और सुख का सहभाव है । पुनः वे कहते हैं कि हम यह भी नहीं मान सकते कि एक के अनन्तर दूसरा होता है, क्योंकि प्रथम ध्यान के पाँच अंग है, और दूसरे के चार । शास्त्र में केवल सुखावेदना को ही सुख का अधिवचन नहीं दिया गया है, अन्य धर्म भी इस नाम से बाने जाते हैं। सूत्रों में 'सुख' शब्द सब प्रकार के धर्मों के लिए व्यवहत होता है। दार्शन्तिक सौत्रान्तिक के अनुसार पहले तीन ध्यानों में चैतसिक सुखेन्द्रिय नहीं होती, किन्तु केवल कायिक सुखेन्द्रिय होती है। यही इन ध्यानों का मुख नामक अंग व्यवस्थापित है, अत: इनके अनुसार तृतीय ध्यान का सुख द्रव्यान्तर नहीं है । पुनः वैभाषिकों के अनुसार द्वितीय ध्यान का संप्रसाद (श्राध्यात्म-संप्रसाद) एक द्रव्य-सत् है। यह श्रद्धा है। योगी द्वितीय ध्यान का लाभ कर गंभीर श्रद्धा उत्पन्न करता है। उसकी इसमें प्रतिपत्ति होती है कि समापत्ति की भूमियों का भी प्रहाण हो सकता है। इस श्रद्धा को अध्यात्म-संप्रसाद कहते हैं। प्रसाद लक्षणा भद्धा प्रसाद कहलाती है । बाघ का प्रहागा कर यह समरूप से प्रवाहित होती है। इसलिए, यह वह प्रसाद है, जो अध्यात्म और सम है । इसलिए यह अध्यात्म-संप्रसाद है । सौत्रान्तिकों के अनुसार वितर्क, विचार, समाधि और अध्यात्म-संप्रसाद एक दूसरे से भिन्न द्रव्य नहीं है।