पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८

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है। वहाँ स्मरण रखना चाहिये कि बोद तान्त्रिक-परिभाषा में शरीर का सारांश विदुही बोधिचित्त नाम से अभिहित होता है। उत्तमांग से बोधि-बिन्दु का क्षरण होता है । यही अमृत-क्षरण है। उस अवस्था को ज्वाला अवस्था कहते है। यह विरमानन्द है । इसके बाद वाक् तथा चित्त-बिन्दु के अवसान में जब चतुबिन्दु का निर्गम होता है, उस काल में सहबानन्द का आविर्भाव होता है। योगी कहते हैं कि प्रत्येक पक्ष में प्रतिपत् से पंचमी पर्यन्त तिथियों जो चन्द्रमा की कलाएँ है, वे श्राकाशादि पंचभूत के स्वरूप है। इन्हीं का नाम नन्दा, भद्रा, जया, रिका तथा पूर्ण है। इनके प्रतीक स्वरादि वर्ण हैं। इन पांचों में श्रानन्द पूर्ण होता है । षष्ठी से दशमी तक की तिथियां भी पूर्ववत् श्राकाशादि पंचभूत के स्वरूप है। इनमें परमानन्द पूर्ण रहता है। एकादशी से पूर्णिमा तक भी श्राकाशादि पंचभूत रूप ही हैं। ये विरमानन्द से पूर्ण रहती हैं। इस प्रकार प्रानन्द, परमानन्द तथा विरमानन्द की साम्यावस्था षोडशी कला है। इसी का नाम सहजानन्द है। इसमें सब धातुओं का समाहार होता है। प्रत्येक अानन्द में जाग्रत् , स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय के भेद से काय, वाक्, चित्त तथा ज्ञान के योग से चार प्रकार के योग उदित होते हैं। कायानन्द, वागानन्दादि प्रत्येक प्रानन्द से संश्लिष्ट योग भी चार प्रकार के हैं। इस प्रकार चार वज्रयोग हो घोडश योग में परिणत होते हैं। इन सोलहों के नाम पृथक् पृथक है । पहले का नाम काम है । अन्तिम का नाम नाद है । (११) तान्त्रिक उपासना शक्ति की उपासना है। बौद्धों की दृष्टि से प्रजा ही शक्ति का स्वरूप है। इसी का प्रतीक त्रिकोण है । इसमें विशुद्ध छः धातु विद्यमान हैं । इसीलिए इनके छ: गुण प्रसिद्ध है-ऐश्वर्य, समग्रत्व, रूप, यश, श्री, शान, तथा अर्थवत्ता । यथा वैष्णव चतुल्यह के प्रसन में भगवत्-स्वरूप अर्थात् वासुदेव का पाड्गुएर विग्रह मानते हैं, और संकर्षणादि तीन व्यूह में प्रत्येक का द्विगुण विग्रह मानने हैं वही प्रकार बौद्धागम एवं बौद्धेतर शैव, शाका- गम में भी है। शक्ति के प्रतीक त्रिकोण के तीन कोशों में तीन बिन्दु है। केन्द्र में मध्यबिन्दु है, जिसमें तीनों का समाहार होता है । कोण के प्रतिबिन्दु में दो गुण माने जाते हैं । इसीलिए समष्टि षड्गुण होता है । शाको के चतुष्पीट का मूल भी यही है। प्रस्तु, यह त्रिकोण क्लेश, मार प्रभृति का भंजन करने वाला है अतः भग' नाम से प्रसिद्ध है। हवतन्त्र में प्रशा को भग कहा गया है । इसका नाम वज्रधर-धानु-महामंडल है। यह महासुख का प्रावास है । यह 'एकार' या धर्म-धातु पदवाच्य है । यह अजइ, स्वच्छ अाकाश के सदृश है और अनवकाश एवं प्रकाश- मय है । वज्रालय या वज्रामन इसी का नामान्तर है । यह अखण्ड, अपरिमित, अनन्त प्रकाशमय है। इसको सिंहामन बनाकर जो आसीन होते हैं, उन्हे भगवान् कहा जाता है । उन्हें ही महाशक्ति का अधिष्ठाता कहते हैं। बौद्धतर श्रागम-शास्त्रों में 'ए' कार शक्ति का प्रतीक है। यह त्रिकोण है । अनुचर पर स्पन्द 'अ' है, उच्छलित श्रानन्द 'या' अनुत्तर है, चित् तथा आनन्द-चित् सहा-रूप में