पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९२

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out बौदाम-दर्शन अभूतपरिकल्प, न भूत न अभूत, प्रकल्प, न कल्प-न अकल्प, यह सब शेय कहलाते हैं । यहाँ प्रकल्प तयता लोकोत्तर शान है ( १९३१)। धों की तबसा-अविद्या और क्लेश से विकल्पों का प्रवर्तन होता है। इनका दयामास, स, अर्थात् ग्राह्यप्राहकामास होता है ( ११॥३२)। इन विकल्पों के अपगम से श्रालंबन- विशेष की प्राप्ति होती है, जहां द्वयाभास नहीं है। यही धर्मों की तथता है । इसे हमने पूर्व धर्मालंबन कहा । नाम पर चित्त का अवस्थान होने से स्वधातु पर (तथता पर ) अवस्थान होता है । स्वधातु विकल्पों की तथता है । यह कार्य भावनामार्ग से होता है। उस क्षण में इन्हीं विकल्पों का अद्वयाभास होता है । जिस प्रकार खरत्व के अपगम से चर्म मृदु होता है, अग्नि से तपाये जाने पर काण्ड ऋजु होता है, उसी प्रकार भावना से प्राश्रयपरावृत्ति होती है, और उन्हीं विकल्पों का पुनः द्वयाभास नहीं होता ( ११।३३ ) । यहाँ वितिमात्रता प्रति- पादित हो रही है। चित्तमात्र है । इसी का द्वयप्रतिभास, ग्राह्यप्रतिभास, ग्राहकप्रतिभास इष्ट है। इसी का रागादिक्लेशामास, द्धादिकुशलधर्माभास भी इष्ट है | चित्त से अन्य कोई धर्म नहीं है। तदाभास से अन्य न कोई लिष्ट धर्म है, न कोई कुशल धर्म है ( १९॥३४ )। अत: यह चित्त ही है, जिसका विविध आकार में श्राभास होता है । यह आभास भावाभाव है, किन्तु यह धर्मों का नहीं है। चित्त का ही चित्राभास होता है। इसका विविध श्राकार में प्रवर्तन होता है। पर्याय से रागाभास, द्वेषाभास अथवा अन्य धर्म का आभास होता है । इस प्रतिभास के व्यतिरिक्त धर्मों का यह लक्षण नहीं है ( १११३५ )। असंग विज्ञानवाद की दृष्टि से ज्ञान के प्रश्न का विवेचन करते हैं। चित्त विज्ञान और रूप है ( १९॥३७ )। परतन्त्र का लक्षण अभूतपरिकल्प है । इसके विविध प्राभास हैं । देहाभास, मन (=क्लिष्टमन )-उद्ग्रह (=पंचविज्ञानकाय)-विकल्प (= मनोविज्ञान )- अाभास ( ११॥४.)। अन्त में असंग धर्मों की तथता का निर्देश करते हैं। यह धर्मों का परिनिष्पन्न लक्षण है । यह सब परिकल्पित धर्मों की अभावता है, और तदभाववश यह भाव है। यह भावाभाव-समानता है, क्योंकि यह भाव और यह अभाव अभिन्न हैं । यह अागन्तुक उपक्लेशों के कारण प्रशान्त है, और प्रवृति परिशुद्ध होने के कारण शान्त है । पुनः यह अविकल्प है, क्योंकि निष्प्रपञ्च है, और विकल्पों के अगोचर है ( १९४१)। तथता का ध्यान करने से योगी श्रादर्शज्ञान और बालोक का लाभ करता है। प्रादर्श चित्त का पात में अक्स्थान है। यह समाधि है। श्रालोक सत्-असत् के आकार में अर्थदर्शन है । यह लोकोत्तर प्रशा है । सत् को सत् और असत् को असत् यथाभूत देखना लोकोत्तर प्रग है (१॥४२)। यह प्रक्षा सब आर्यगोत्रों को सामान्य है। भवत्रयात विविध नैरात्म्य को जानकर, और यह जानकर कि यह द्विविध नैरागम्य सम है, क्योंकि परिकल्पित पुद्गल का अभाव है, और परिकल्पित धर्मों का अभाव है, किन्तु इसलिए नहीं कि सर्वथा अभाव है, बोधिसत्व तत्त्व में, अर्थात् वितिमात्रता में प्रवेश करता । बा तत्व-विज्ञप्तिमात्र में मन का अवस्थान होता है, तब तत्व का स्थान नहीं होता । यह