पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९५

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सहपाश मचाच यों करते हैं :---बोधिसत्व पहले सूत्रादिक धर्म के नाम में (यथा दशभूमिक) चित्त को बाँधता है, वह इसके अर्थ और व्यञ्जन का विचार करता है, विचारित अर्थ को मूलचित्त में संक्षिप्त करता है, और ज्ञान के लिए उसका चित्त छन्द-सहगत होता है । वह समाधि में चित्त का दमन करता है । इससे उसके चित्त की स्वरमवाहिता होती है । पहले यह साभिसंस्कार होती है, पुनः अभ्यासरश अभिसंस्कारों के बिना होती है। तदनन्तर उसको कायप्रश्रन्धि और चित्तप्रश्रब्धि का लाभ होता है । इसकी वृद्धि कर वह मौली स्थिति का लाभ करता है, और इसका शोधकर वह ध्यानों में कर्मण्यता को प्राप्त होता है । ध्यानों में उसको अभिजाबल की प्राप्ति होती है, जिससे वह अप्रमेय बुद्धों की पूजा करने और उनसे धर्म-श्रवण करने के लिए बुद्धो के लोकधातुओं को जाता है । भगवदुपासना से वह चित्त की कर्मण्यता और काय-चित्त की प्रश्रब्धि का लाभ करता है, और कृस्न दौष्ठुल्य प्रतिक्षण द्रवित होता है । वह विशुद्धि का भाजन हो जाता है। तब वह निर्वेधभागीय अवस्थाओं में से होकर क्रमशः गमन करता है । इससे उसको द्वयग्राइविसंयुक्त लोकोत्तर निर्विकल्प शुद्ध ज्ञान का लाभ होता है । यह दर्शन मार्ग की अवस्था है। उसका चित्त सदा सम होता है, वह शून्यश होता है, अर्थात । विविधशून्यता का कान रखता है:-अभावशन्यता, तथाभाव की शून्यता, प्रकृति- शून्यता । यह अनिमित्त पद है, यह अप्रणिहित पद है । वह बोधिपक्षीय धर्मों का लाभ करता है, और 'महात्मदृष्टि का लाभ करता है । जहाँ सब सत्यों में श्रात्मसम चित्त का लाभ होता है। तब ज्ञान की भावना के लिए परिशिष्ट भूमियों में प्रयोग और विकल्पाभेद्य वज्रोपम समाधि का लाभ शेष रह जाता है, और वह सर्वज्ञता लाभ करके अनुत्तर पद में स्थित हो सत्वों के हित के लिए अभिसंबोधि और निर्वाग का संदर्शन करता है (सिलवाँ लेवी की भूमिका पृ. २६-२७)। इस अधिकार में असंग बोधिसत्व-चर्या की विविध भूमियों का अनुसरण करते हैं । यह बोधिसत्व को विज्ञप्तिमात्रता में प्रतिष्ठित देखते हैं। तथाभूत बोधिसत्य राब अर्थों को प्रतिभासवत् देखता है । उस समय से उसका ग्राविक्षेप प्रहीण होता है। केवल ग्राहकवितेष अवशिष्ट रहता है । यह उसकी क्षान्ति-अवस्था है। तब यह शीघ्र ही श्रानन्तर्य-समाधि का स्पर्श करता है । यह उसकी लौकिकाग्रधर्मावस्था है। यह समाधि 'अानन्तर्य' कहलाती है, क्योकि तदनन्तर ही ग्राहकविक्षेप प्रहीण होता है। यह निधभागीय है। यहां मनोजल्पमात्र रह जाता है (१४।२३-२६ )। यह अवस्था द्वयपाद से विसंयुक्त, निर्विकल्प, विरज और अनुत्तर है ( १४।२८)। इस प्रकार नैरात्म्य का लाभकर वह सब सलों में आत्मसमनित्तता का प्रतिलाभ करता है। धर्मनैरास्य से धर्मसमता का प्रतिवेध कर वह विचार करता है कि मेरे दुश्व और पराये के दुःख । में कोई विशेष नहीं है । अतः वह परदुःखप्रहाण को उसी प्रकार कामना करता है, बिस प्रकार अपने दुःख के प्रहाण की और इसके लिए दूसरों से कोई प्रत्युपकार नहीं चाहता ( १४१३१)। उसके आर्यत्व में क्या अन्तराय हो सकता है ? अपने अद्वयार्थ से वह संस्कारों को अभूतपरिकल्पतः देखता है । जब वह प्रापग्राहकाभाव के भाव को ( धर्मधात को ) दर्शन-