पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सहदसमन्याय दुःख का ग्रन्थ के सोलहवे अधिकार में असंग पा पारमिता की चर्या का वर्णन करते हैं। सत्रहवे में वह बुद्ध-पूजा, कल्याणमित्रसेवा और चार अप्रमाण ( मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा ) का उल्लेख करते हैं । अन्त में वह करुणा के अनुशंस में कहते है कि जो मन कृपा से प्राविष्ट है, वह शम में अवस्थान नहीं करता। श्रावक-प्रत्येकबुद्धों का मन निर्वाण में प्रतिष्ठित होता है। वे निःस्नेह होते हैं, किन्तु बोधिसत्रों का मन निर्वाण में भी प्रतिष्ठित नहीं होता । तब स्वजीवित या लौकिक सुख में उनको कैसे प्रीति हो सकती है। अाविष्टानां कृपया न तिष्ठति मनः शमे कृपालूनाम् । कुत एव लोकसौख्ये स्वलीविते वा भवेत् स्नेहः ॥ [ १७/४२] बोधिसत्वों का करुणा लेह विशिष्ट है। माता-पिता के लिए जो स्नेह होता है, वह तृष्णामय है, अतः सावध है । जो लौकिककरुणाविहारी हैं, उनका लेह निरवद्य होते हुए भी लौकिक है, किन्तु बोधिसत्रों का स्नेह करुणामय है | यह निरवद्य है, और लौकिक का अति- क्रमण भी करता है । लोक दुःख और अजान में निश्रित है। लोक के उद्धरण का उपाय निरवद्य क्यों न होगा ! सल्वों के प्रति कमणा करने से बोधिसत्वों को जो दुःख होता है, वह श्रादिभूमि में त्रास का कारण होता है, क्योंकि अभी तक उन्होंने आत्म-पर-समता से यथाभूत स्पर्श नहीं किया है। किन्तु एक वार स्पर्श होने से वह दु.ख का अभिनन्दन करता है। इससे बढ़कर क्या प्राश्चर्य होगा कि बोधिसत्यों का करुणादाख सब लौकिकसुख को भी अभिभूत करता है । असंग कहते हैं कि भोगी को भी उपभोग से वैसी तुष्टि नहीं होती, जैसी कृपालु बोधिसत्व की तुष्टि परित्याग से होती है । उसका चित्त सुखत्रय ( दानप्रीति, परानुग्रह- प्रीति, बोधिसभारसमरणप्रीति) से श्राप्यायित होता है ( १७६१)। न तयोपभोगतुष्टिं लभते भोगी यथा परित्यागात् । तुष्टिमुपैति कृपाल: मुग्नत्रयाप्यायितमनस्कः ॥ [ १७६१ बोधिपाक्षिक-धर्म अन्य में अब बोधिपक्षाधिकार प्रारम्भ होता है ( १८)। इस अधिकार में उन गुणों का वर्णन है, जिनसे बोधि की प्राप्ति होती है । बोधिसत्व में दोषों का अभाव होता है, और वह गुणों से युक्त है । उसका श्राश्रय निर्मल, अच्छ, अलिस, निर्विकल्प और शून्य होता है। उसकी तुलना अाकाश से ही हो सकती है। वह आकाश के तुश्य लोकधर्मों से लिस नहीं होता ( १८१२०) यहां बोषिपक्षीय धर्मों का उल्लेख नहीं करना है, क्योंकि इनका दर्शन से प्रत्यक्ष संबध नहीं है [१८/८०], और उसके आगे के श्लोक असंग सब संस्कारों की अनित्यता, दुःखता, व धर्मों की अनामता के लिए पुराने बाक्य का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि बोधिसयों के लिए अनित्य का अर्थ असत् है । उनके लिए अनित्य परिकल्पित-लक्षण है, दुःख का अर्थ अभूत-विकल्प है, और अनात्म का अर्थ परिकल्पमात्र है। परिकल्पित अात्मा नहीं, है किन्तु परिकल्पमात्र है। इस प्रकार अनाम का अर्थ परिकल्पितलक्षण का अभाव है (१८८१)। ५२