पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५००

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११२ बौद्ध धर्म-दर्शन नहीं है । पुना बोधिधनोय धर्मों की श्रवस्थाएँ विविध हैं। इनकी वृत्ति का भेद और सन्तान का भेद श्रद्धानुसारी श्रादि पुद्गलों की प्राप्ति के बिना देशित नहीं हो सकता। इसीलिए भगवान् की पुद्गल-देशना है, किन्तु पुद्गल का द्रव्यतः अस्तित्व नहीं है। क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि श्रात्मदृष्टि के उत्पादन के लिए यह देशना है। प्रारमदृष्टि पहले से है। अतः वह अनुत्पाद्य है। उसके अभ्यास के लिए भी नहीं है, क्योंकि इसका अभ्यास अनादि- कालिक है, और यदि इसकी देशना इसलिए होती कि आत्मदर्शन से मोक्ष होता है, तो सबको मोक्ष का लाभ बिना यत्न के ही होता; क्योंकि चो दृष्ट-सत्य नहीं है,उनको भी श्रात्मदर्शन होता है। अथवा मोक्ष नहीं है और पुद्गल नहीं है । पहले अात्मा का अनात्मतः ग्रहण कर सत्याभिसमय के काल में कोई उसको श्रात्मतः गृहीत नहीं करता। आत्मा होने पर अहंकार ममकार प्रात्मतृष्णा तथा अन्य क्लेश, जो तन्त्रिदान है, अवश्य होंगे। इससे भी मोक्ष न होगा। अथवा कहना चाहिए कि पुद्गल नहीं है | उसके होने पर यह दोष नियत रूप से होते हैं (१८८२-१०३)। सयता का प्रत्यक्ष-योगी पुद्गल निमित का विनाश करता है, और अालयविज्ञान का क्ष्य कर शुद्ध तथता का लाभ करता है । तथता-ज्ञान यथाभूत का परिशान है । असंग कहते हैं कि तथतालम्बन ज्ञान दयग्राह से विवर्जित है । इसकी भावना अनानाकार होती है, क्योंकि यह निमित और तथता को पृथक् पृथक नहीं देखता । बोधिसत्व तथता को छोड़कर निमित्त नहीं देखते और निमित्त को ही अनिमित्त देखते हैं। अत: उनके शान की भावना पृथक पृथक नहीं होती। सत्तार्य-असत्तार्थ में ( तथतानिमित्त ) ज्ञान का प्रत्यक्ष होता है। यह निमित्त और तथता दोनों को बिना नानात्व के संगृहीत करता है (१९५२)। इम तत्व का रोछादन कर मूढ़ पुरुषों को सर्वतः अतस्त्र का ख्यान होता है। किन्तु बोधिसत्वों को तत्व का ही ख्यान होता है, अतव का नहीं ( १६५३) । जब असदर्थ (निमित्त ) की अख्यानता और सदर्थ ( तथता) की ख्यानता होती है, तब यही श्राश्रय- परापत्ति है, यही मोन है । तब वह स्वतन्त्र होता है, अपने चिस का वशवर्ती होता है, क्योंकि प्रकृति से ही निमित्त का समुदाचार नहीं होता ( १९५४)। बोधिसत्य की दशभूमियां इसके बाद ( २०-२१ ) असंग चर्या की दश भूमियों का उल्लेख करते हैं, और एक दुख-स्तोत्र के साथ ग्रन्थ को समाप्त करते है। प्रथम भूमि को अधिमुक्तिचर्या भूमि कहते है। इस भूमि में पुद्गल-नैरात्म्य और धर्म- नैरात्म्य का अभिसमय होता है; अर्थात् योगी धर्मता का प्रतिवेध करता है। इससे दृष्टि विशुद्ध होती है। दूसरी भूमि मुदिता है। इसमें अधिशील शिक्षा होती है। पुद्गल जानता है कि कर्मों का अविप्रणाश है, और कुशल-अकुशल कर्मपथ का फलवैचिन्य होता है। वह अपने शील को विशुद्ध करता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म अापत्ति (अपराध) भी नहीं करता । इस भूमि