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४११ नौद्धधर्मदर्शन है। वैसे ही श्रुतधर्म वह आश्रय होता है । जो समाधि और धारणी से व्याप्त है। अत: यह धर्ममेघा कहलाती है ( अधिकार २०-२१) । इन विविध भूमियों को विहार भी कहते हैं, क्योंकि बोधिसत्वों की इनमें सदा सर्वत्र रति होती है। इसका कारण यह है कि वह विविध कुशल का अभिनिहरि चाहते हैं। इन्हें भूमि कहते हैं, क्योंकि अप्रमेय सत्वों को अभय देने के लिए ऊर्ध्वगमन का योग होता है। अन्त में बुद्ध-स्तोत्र है।