पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०५

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अष्टावराभवाच विधान का ही ऐसा परिणाम होता है । यह कल्पना क्यों है कि कर्म की वासना अन्यत्र है, और कर्मफल अन्यत्र है? विक्षिपात्रता विज्ञानवाद के पक्ष में मागम -बहुधर्मवादी आगम के अाधार पर एक दूसरी श्रापत्ति उपस्थित करते हैं। भगवद्वचन है कि रूपादि अायतन का अस्तित्व है, यदि विधान ही रूपादि- प्रतिमास होता और रूपादिक अर्थ का अभाव होता, तो भगवान् रूपादि आयतन के अस्तित्व की बात कैसे करते? वसुबन्धु इस आक्षेप के उत्तर में कहते हैं कि भगवान् को यह उति विनेय बनों के के प्रति अभिप्रायवश है, यथा-भगवत् ने अभिप्रायवश कहा है कि उपपादुक-सत्व होता है, "उपपादुक सत्व है। इस उक्ति में अभिप्राय यह है कि पायतन में चित्त-सन्तति का उच्छेद नहीं होता । वस्तुतः भगवद्ववचन है कि यहां सत्व अथवा अात्मा का अस्तित्व नहीं है, केवल यह सहेतुक धर्म है । इसी प्रकार "रूपादि आयतन का अस्तित्व है। यह वचन भी प्राभिप्रायिक है। इस वचन का अभिप्राय यह है कि भगवान् चतुरायतन से बीज (परिणाम-विशेष-प्रास) को प्रशस करते हैं, जिससे रूप-प्रतिभास-विज्ञप्ति का उत्पाद होता है, और 'रूपायतन से विज्ञप्ति के इसी रूप-प्रतिभास को प्रजप्त करते हैं। इसी प्रकार स्पष्टव्यायतन श्रादि को बानना चाहिये। पुद्गख नैरास्म्य, धर्म-नैरारम्प-इस देशना का गुण यह है कि इससे पुद्गल-नैरात्म्य में प्रवेश होता है । इस देशना में भगवान् का अभिप्राय यह है कि श्रावक पुद्गल-नैरात्म्य में प्रतिपन्न हो, इसीलिए वह कहते हैं कि विज्ञान-पटक का प्रवर्तन दो से होता है; यथा- चक्षुरायतन और रूपायतन से । यह जानकर कि कोई एक द्रष्टा....."मन्ता नहीं है, लोग जिनका विनयन पुद्गल-नैरात्म्य को देशना से करना है, पुद्गल-नैरात्म्य में प्रवेश करते हैं। वसुबन्धु एक आपत्ति बताते हैं, और कहते है कि वस्तुतः विज्ञप्तिमात्र रूपादि धर्म के आकार में प्रतिभासित होता है। अत: यह जानकर कि रूपादि लक्षण का कोई धर्म नहीं है, धर्म-नैरात्म्य में प्रवेश होगा किन्तु इससे आनष्ट भी होगा, क्योंकि इससे विज्ञप्तिमात्र भी न रहेगा। यदि धर्म का सर्वथा अभाव है, तो वितिमात्र की व्यवस्था कैसे होगी। यह भी न रहेगा कि वह इस श्रापत्ति का निराकरण करते हैं। वह कहते हैं कि यह अयथार्थ है कि धों का सर्वथा अभाव है। परमार्थ-दृष्टि में धर्म-नैरात्म्य का विपर्यास है । इसमें सन्देह नहीं कि धर्म निराम है, क्योंकि मूों ने धर्मों का जो स्वभाव (प्राह्य-प्राहकादि ) परिकल्पित किया है, उससे धर्म रहित है, अर्थात् उस कल्पित प्रात्मा मे उनका नैरात्म्य है। किन्तु अनभिलाग्य प्रामा से जो बुद्धों का ही विषय है, उनका नैरारम्य नहीं है। इस प्रकार वसुबन्धु नागार्जुन के धर्म-नैरात्म्य से विहानवाद की रक्षा करते हैं। महायान स्वीकार करने के पूर्व वह सौत्रान्तिक थे। कदाचित् महायान धर्म स्वीकार करने पर भी वह अपनी वृत्ति को कुछ अंश में सुरक्षित रखते हैं।