पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२२

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४३४ नौद्ध-धर्मवान से श्रावृत प्रसंसस्तों के इम्प-सबका निषेध संस्कृत धर्मों के अभाव को सिद्धकर शुभान-च्चांग हीनयान के असंस्कृतों का विचार करते है :-श्राकाश, प्रतिसंख्यानिरोध, अप्रतिसंख्यानिरोध । असंस्कृत प्रत्यक्षशेय नहीं है, और न उनके कारित्र तथा व्यापार से उनका अनुमान होता है । पुनः यदि वह व्यापारथील है, सो वह नित्य नहीं है, अतः विशान से व्यतिरिक्त असंस्कृत कोई द्रव्य-सत् नहीं है। अाकाश एक है या अनेक ? यदि स्वभाव में यह एक है, और सब स्थानों में प्रतिवेष करता है, तो रूपादि धर्मों को अवकाश प्रदान करने के कारण यह अनेक हो जाता है; क्योंकि एक वस्तु से श्रावृत स्थान वस्तुओं के अन्योन्य प्रतिवेध के बिना दूसरी वस्तु नहीं होता। निरोध यदि एक है तो जब प्रणा से नौ प्रकार में से एक प्रकार का प्रहाय होता है, पांच संयोजनों में से एक संयोजन का उपच्छेद होता है, तो वह अन्य प्रकार का भी प्रहाण करता है, अन्य संयोजनों का भी उपच्छेद करता है। यदि निरोध अनेक है, तो वह रूप के सदृश असंस्कृत नहीं है; अत: निरोध भी सिद्ध नहीं होते। यह विज्ञान के परिणाम-विशेष है । हाँ! यदि आप चाहे तो असंस्कृतों को धमंता, तथता का प्रप्ति-सन् मान सकते हैं । तयता, धर्मसा, भाग-शुश्रान-च्चांग तथता की एक नवीन व्याख्या करते हैं :-यह श्रवाच्य है, यह शुन्यता से, नैरात्म्य से श्रवभासित होती है । यह चित्त और वाक्पथ के ऊपर है, जिनका संचार भाव, अभाव, भावाभाव और न भाव तथा न अभाव में होता है । यह न धर्मों से अनन्य है, न अन्य, न दोनों है, और न अनन्य है तथा न अन्य । क्योंकि यह धर्मों का तत्व है, इसलिए इसे धर्मता कहते हैं। इस धर्मता ( वस्तुओं का विशुद्ध स्वभाव) के एक श्राकार को आकाश कहते हैं, और निर्वाण के श्राकार में योगी इसी का साक्षात्कार, इसी का प्रतिवेध करता है। किन्तु यह समझ लेना चाहिये कि तथता स्वतः या अपने इन दो श्राकारों में वस्तु-सत् नहीं है। शुश्रान-स्वांग निःसंकोच हो प्रतिज्ञा करते हैं कि यह प्रशप्तिमात्र है। इस संशा को व्यावृत्त करने के लिए कि यह असत्व है, कहते हैं कि यह है (इस प्रकार शून्यता के विपर्यास और मिथ्यादृष्टि का प्रतिषेध करते हैं)। इस संशा को व्यावृत्त करने के लिए कि यह है, महीशासक कहते हैं कि यह शून्य है। इस संशा को व्यावृत्त करने के लिए कि यह मायावत् है, कहते हैं कि यह वस्तुसत् है। किन्तु यह न वस्तुसत् है, न अवस्तु । स्मोकि यह न अभूत है ( यथा परिकल्पित), न वितथ ( यथा परतन्त्र)। इसलिए इसे भतवपता कहते है। (पृ०७७) प्राण-प्राहक विचार इस प्रसंग में शुमान चांग प्राम-ग्राहक का विचार करते हैं। चिन धर्मों को तीर्थिक और हीनयानवादी.चित्त-चैत्त से भिन्न मानते हैं, वह द्रव्यसत् स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह ग्राम हैं, जैसे चित्त-चैत है; जिनका महण पर-चित्त-बान से होता