पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२३

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अष्टासमध्याय है। बुद्धि बो रूपादि का ग्रहण करती है, उनको श्रालंबन नहीं बनाती; क्योंकि यह ग्राहक है । जैसे परचित्त-ज्ञान है, जो परचित्त का ग्रहण करता है, और उसको श्रालंबन नहीं बनाता; क्योंकि वह इस चित्त के केवल प्राहक-अनुकृति ( सबजेक्टिव इमीटेशन) को श्रालंबन बनाता है। चित्त-चैत भूत-द्रव्य-सत् नहीं है, क्योंकि इनका उद्भव मायावत् परतन्त्र है (प्रतीत्यसमुत्पन)। शुश्रान-च्चांग अपने विज्ञानवाद की यात्मवाद-द्रव्यवाद से रक्षा करने में सतर्क है। इस मिथ्यावाद का प्रतिषेध करने के लिए किचित्त-चैत्त-तिरकी बाह्य विषय द्रव्य-सत् है, यह कहा जाता है कि विज्ञप्तिमात्र है। किन्तु इस विज्ञान का और विज्ञान-व्यतिरकी वाय विषयों को परमार्थतः द्रव्य-सत् स्वभाव मानना धर्मग्राह है। सहज धर्मग्राह-धर्मग्राह की उत्पत्ति कैसे होता है, इसकी परीक्षा शुयान-यांग करते है। वह कहते हैं कि धर्मग्राह (धर्माभिनिवेश ) दो प्रकार का है ।-सहज और चिकल्लित । महज अभूत( वितथ) वामना में प्रवृत होता है । अनादि काल से धर्माभिनिवेश का जो अभ्यास होता है, और इस अभ्यासवश जो बाज विज्ञान में संचित होते हैं, उसे वासना कहते हैं । यह धर्मग्राह सदा श्राश्रय-सहगत होता है। इसका उत्पत्ति या परिणाम स्वरसन होता है । मिथ्या देशना या मिथ्या उनिध्यान से यह स्वतन्त्र है । इसलिए इस सहज कहते है । विकल्पित धममाह-बाह्य प्रत्ययवश उत्पन्न हाता है। इसका उत्पत्ति के लिए मिथ्या देशना और मिथ्या उपानभ्यान का होना आवश्यक है। अत: यह विकाल्मत कहलाता है । यह मनोविज्ञान में अवस्थित है। सर्व धर्मग्राह का विषय धमाभास है, बो स्वचित्तनिर्मास हैं। ये धर्माभास हेतुजनित । अतः इनका अस्तित्व है, किन्य मायावत् परतन्त्र है। इसाल { इन्हें हम धमामास कहते हैं। भगवान् ने कहा है:-हे मैत्रेय ! विज्ञान का विषय विज्ञाननिर्भासमात्र है। यह मायादि- वत् परतन्त्रस्वभाव है । [ सन्धिनिमांचनसूत्र ] । सिद्धान्त यह है कि आत्म-धर्म द्रव्य-सत् नहीं है । अतः चित्त-चैत्त का रूपादि बावधर्म प्रालंबन-प्रत्यय नहीं है। कोई बाझार्थ नहीं है। यह मूढ़ों को कल्पना है। वासनाओं से लुठित चित्त का अर्थाभास में प्रवर्तन होता है । इनमें द्रव्यत्व का उपचार है। आत्म-धोपचार पर माप वैशेषिक श्राक्षेप करते है कि यदि मुख्य श्रात्मा और मुख्य धर्म नहीं हैं, तो विज्ञान- परिणामवाद में प्रात्मधर्मोपचार युक्त नहीं है । तीन के होनेपर उपचार होता है । इनमें से किसी एक के अभाव में नहीं होता। यह तीन इस प्रकार है-१. मुख्य पदार्थ, २. तत्सहश अन्य विषय, ३. इन दोनों का सादृश्य । यथा मुख्य अग्नि, तत्सदृश माणवक और इन दोनों के साधारण धर्म कपिलत्व या तीक्षणत्व के होने पर यह उपचार होता है कि अग्नि माणवक