पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२९

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बाद अध्याय ५४१ सर्व सासव विज्ञान ( जो प्रमाद से निर्मल नहीं हुआ है) उत्पन्न होता है, त्यों ही वह बालंबक और श्रालंबन इन दो लक्षणों से उपेन होता है। एक दर्शनभाग है, दूसरा निमित्त- भाग है। शुभानन्याग कहते हैं कि दर्शन-भाग के बिना निमित्तभाग असंभव था। यदि चित्त-चैत्त में प्रालंबन का लक्षण न होता तो वह स्वविश्य को श्रालंबन नहीं बनाते अथवा वह सर्वविश्य को स्वविषय तथा अन्य विश्य को–अस्पष्टतया श्रालंबन बनाते । और यदि उनमें सालंबन ( अालंधक) का लन्नण न होता तो वह किसी को श्रालंबन न बनाते, किसी विषय का ग्रहण न करते । अतः चित्त-वैत्त के दो भाग ( मुग्न ) है-- दर्शन और निमित्त । किंतु वस्तुनः “सत्र वेदक बोधकमात्र है; वेद्य का अस्तित्व नहीं है । अथवा यो कहिए कि वेदकभाग और वेद्यभाग का प्रवर्तन पृथक् स्वयं होता है। यह स्वयंभू है क्योंकि यह स्वहेतु-प्रत्यय-सामग्रीवश उत्पन्न होने हैं, और चित्त से बहिर्भूत किसी वस्तु पर श्राभित नहीं है।" (रेने प्रसे, पृ० १०० का पाठ दम प्रकार है अथवा यो कहिए कि वेदकभाग और वेद्यभाग का अस्तित्व स्वतः नहीं है । ) अत: शुभानन्चांग हीनयान के इस वाद का विरोध करते हैं कि विज्ञान के लिए १. बालार्थ ( श्रालंबन ) २. अध्यानिमित्त ( जो हमाग निमित्तभाग है ), जो विज्ञान का श्राकार है, ३. दर्शन, द्रष्टा ( हमारा दर्शनभाग ), जो स्वयं विज्ञान है, चाहिये । शुश्रान- वांग के मत में इसके विपरीत चित्त-व्यतिरेकी अथों का अस्तित्व नहीं है। उनके अनुसार विज्ञान का श्रालंबन निमित्तभाग है और विज्ञान का श्राकार दर्शनभाग है। वह हीनयान के लक्षणों को नहीं स्वीकार करते। इन दो भागों का एक आश्रय चाहिये और यह आश्रय विज्ञान का एक श्राकार है जिसे स्वमवित्ति-भाग कहते हैं | तीन भाग इस प्रकार हैं:-१. प्रमेय अयात् निमित्तभाग; २. प्रमाण अर्थात् विज्ञतिक्रियाः यह दर्शनभाग है; ३. प्रमाणफलः यह संवित्ति- भाग अथवा स्वाभाविक भाग है। इनको प्रमाणसमुश्चय में ग्राह्यभाग, प्राहकभाग, स्वसंवित्तिभाग कहा है। ये तीन विशान से पृथक् नहीं है। शुश्रान-बांग कहते हैं कि यदि चित्त-चैत धर्मों का सूक्ष्म विभाजन किया जाय तो चार भाग होते हैं। पूर्वोक्त तीन भागों के अतिरिक्त एक चौथा भाग है । इसे स्वसंवित्ति-संवित्तिभाग कहते है। नील-प्रतिबिंब ( निमित्तभाग ) दर्शन का ( दर्शनभाग का ) प्रमेय है। दर्शनभाग प्रमाण है। यह विशति-क्रिया है : “यह नील देखता है।" इस दर्शन का फल स्वसंविति' कहलाता है। यह जानना कि मैं नाल देखता हूं 'स्वसवित्ति' है। स्वसंवित्ति दर्शन का फल है। यह दर्शन को प्रालंबन के रूप में गृहीत करता है, क्योंकि यह श्रालंबन को ग्रहीत करता है। इसका एक फल होना चाहिये जिसे 'स्वसंवित्ति-संवित्ति' कहते हैं. यह जानना कि मैं जानता हूं कि मैं नील देखता हूं।" यह स्वसंवित्ति को जानता है, जैसे स्वसंवित्ति दर्शन को