पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३२

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vy बौद्ध धर्म दर्शन उत्तर विज्ञान-सप्तक और उनके संप्रयुक्त की वास्तविक क्रिया की उत्पत्ति अष्टम-विज्ञान से होती है, क्योंकि वह उसके निमित्तभाग का उपभोग करते हैं अर्थात् उन अर्थों का उपभोग करते हैं जिनमें इसका परिणाम होता है। अष्टम का परिणाम असंस्कृतादि में भी नहीं होता, क्योंकि उनका कोई कारित्र हमने जो कुछ पूर्व कहा है वह सासव-विज्ञान के लिए है। जब अष्टम-विज्ञान की अनासव अवस्था ( बुद्धावस्था ) होती है, तब यह प्रधान प्रहा से संप्रयुक्त होता है । यह अविकल्पक किन्तु प्रसन्न होता है, अतः यह असंस्कृत तथा चित्तादि के हन सब निमित्तों को अवभासित करता है, चाहे यह धर्म क्रिया-वियुक्त हो । विपक्ष में बुद्ध सर्वहन होंगे। किन्तु जबतक अष्टम-विज्ञान सासव है, तबतक यह कामधातु और रूपधान में केवल भाजनलोक, सेन्द्रियककाय और सास्तव बीजों का श्रालंबन के रूप में ग्रहण करता है । श्रारूप्यस्य विज्ञान केवल सासव बीजों का ग्रहण करता है । इस धातु के देव रूप से विरक्त हैं। किन्तु समाधिज रूप के बालंबन बनाने में विरोध नहीं है । अष्टम-विज्ञान का श्राकार ( दर्शनभाग, विशति ) अतिसूक्ष्म, अणु होता है । अतः वह असंविदित है । अथवा अष्टम-विज्ञान इसलिए असविदित है, क्योंकि उसका अध्यात्म-बालंबन अतिसक्ष्म है, और उसका बाय-बालंबन (माजनलोक ) अपने संनिवेश में अपरिच्छिन है। किन्तु सौत्रान्तिक और सर्वास्तिवादी प्रश्न करते हैं कि यदि अष्टम-विज्ञान का श्राकार अमविदित है, अर्थात् उसका प्रतिसंवेदन करना अशक्य है तो अष्टम 'विज्ञान' कैसे है । हमारा सौत्रान्तिकों को, जो स्पविरवादियों के समान एक सूक्ष्म विज्ञान में प्रतिपन्न है, यह उत्तर है कि पाप मानते हैं कि निरोध-समापत्ति श्रादि की अवस्था में एक विज्ञान-विशेष होता है, जिसका आकार असंविदित है । श्रतः श्राप मानते हैं कि अष्टम-विज्ञान सदा असंविदित होता है। सर्वा- तिवादियों से जो निरोध-समापत्ति श्रादि की अवस्था में विज्ञान के अस्तित्व का प्रतिषेध करते है, हमारा यह कहना है कि उक्त समापत्तियों की अवस्था में विज्ञान अवश्य होता है, क्योंकि जो योगी उसमें समापन होता है उसे सत्व मानते हैं । आपके मत में भी सत्व सूचित होता है। श्रालय का चैतों से सम्प्रयोग यह प्रालय-विज्ञान सदा से श्राश्रय-परावृत्ति पर्यन्त अपनी सर अवस्थात्रों में पाँच सवंग ( सर्वत्रग ) चैतों से संप्रयुक्त होता है। ये पांच चैत इस प्रकार है :- स्पर्श, मनस्कार, वेदना, संशा और चेतना। ये पाँच प्राकोर में श्रालय-विज्ञान से भिन्न है किन्तु यह श्रालय के सहभू हैं। इनका यही श्राश्रय है जो प्रालय का है, और इनका श्रालंबन ( = निमित्तभाग ) तथा द्रव्य (संवित्ति- भाग) प्रालय के प्रालंबन और द्रव्य के सदश है। अतः यह प्रालय से संप्रयुक्त हैं।