पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अहादश अध्याय ४४६ त्पत्ति होती है, और हेतु का विनाश होता है । कोई विच्छेद नहीं है, क्योंकि फल की उत्पत्ति होती है। कोई शाश्वतत्व नहीं है, क्योंकि हेतु का विनाश होता है । अशाश्वतत्व, अनुच्छेद प्रतीत्य-समुत्पाद का नय है। इसीलिए वमुबन्धु कहते हैं कि प्रालय-विज्ञान सोत के रूप में श्रव्युपरत प्रवर्तित होता है। माध्यमिक मादि से पुखना-मध्यमक ( १,१) में प्रतीत्यसमुत्पाद का यह लक्षण दिया है :--"अनिरोधं अनुत्पादं अनुच्छेदं प्रशाश्वतम् ।" नागार्जुन ने प्रतीत्यसमुत्पाद को शत्यता का समानार्थक माना है, और उनके अनुसार यह प्रकारान्तर से निर्वाण का दूसरा मुख ( श्राबवर्स ) है । शुभान-बांग का लक्षण इस प्रकार होगा ::-सोत्पादं सनिरोधम् अनु- छेदम्। वह प्रतीत्यसमुत्पाद को मस्वभाव मानता है, क्योंकि वह श्रालय-विज्ञान का स्वभाव बताया गया है । श्रालय समुत्पाद स्वभाव है जो अनादिकालिक प्रतीत्य-समुत्पाद अर्थात् हेतु-फल की निरन्तर प्रवृत्ति है। जो दृष्टान्त हम नीचे देते हैं उससे बढ़कर कौन दृष्टान्त होगा जो प्रालय के विविध आकारों को प्रदर्शित करे ? यह दृष्टान्त लंकावतार से उद्धृत किया गया है। शुभान-वांग (पृ० १७५) इसका उल्लेख करते हैं क्या समुद्र पवन-प्रत्यय से अभ्याहत हो तरंग उत्पादित करता है ? किन्तु शक्तियों का ( जो तरंग को उत्पन्न करती हैं ) प्रवर्तन होता रहता है, और विच्छेद नहीं होता, उसी प्रकार विषय-ययन से ईरित हो श्रालयोध नित्य विचित्र तरंग-विज्ञान (प्रवृत्ति-विज्ञान) उत्पन्न करता है, और शक्ति ( जो विज्ञान का उत्पाद करती है ) प्रवर्तित रहती । इस दृष्टान्त में प्रवृत्ति-विज्ञानों की तुलना तरंगों से दी गयी है, जो सार्वलौकिक विज्ञानरूपी निल्य स्रोत के तल पर उदित होते हैं ! यह विचार करने की बात है कि यदि इस दृष्टि से देखा जाय तो विज्ञानवाद विज्ञान- वाद न ठहरेगा किन्तु अद्वयवाद हो जायगा । अन्यत्र (पृ० १६७-१६८) शुश्रान-न्यांग कहते हैं कि उनका अालर-विज्ञान एक जातीय और सर्वगत मदाकालीन संतान है । संक्षेप में यह एक प्रकार का ब्रह्म है। मालयकी एक कठिन प्रश्न यह है कि प्रालय की व्यावृत्ति होती है या नहीं। निर्वाण के लाम के लिए, सर्व धर्म का सुखनिरोध करने के लिए, इस अव्युच्छिन्न प्रवाह को व्यावृत्त करना होता है । प्रश्न यह है कि श्रालय-विज्ञान की न्यावृत्ति अहत्त्व में होती है या केवल महाबोधि- सत्व में होती है। पपन्न 'अर्हत्व' शब्द का प्रयोग करते हैं ( त्रिंशिका, ५)। स्थिरमति के अनुसार क्षय-शान और अनुत्पाद-ज्ञान के लाभ से अहव होता है और उस अवस्था श्रालयाभित दौष्ठुल्य का निरवशेष प्रहाण होता है। इससे प्रालय-विज्ञान व्यावृत्त होता है । यही अईत् की अवस्था है। प्रथम अचार्यों के अनुसार 'अर्हत्' से तीन यानों के उन बार्यों से श्राशय है जिन्होंने अशेक्ष फल का लाभ किया है। यह प्राचार्य प्रमाण में योगशास्त्र के इस वाक्य को उद्धृत करते हैं :-"अहंत, प्रत्येकजुद्ध और तथागत अालय-विज्ञान से संमन्वागत नहीं