पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५४२

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३५१ और-धर्म दर्शन सौत्रान्तिक मतों की परीक्षा समाप्त होती है। अब हम अन्य निकायों की परीक्षा करेंगे। महासपि-महासाधिक विज्ञान-जाति को विचार-कोटि में नहीं लेते। यह मानते हैं कि प्रवृत्ति-विज्ञान सहभू हो सकते हैं । किन्तु यह वासना के वाद को नहीं मानते। अत: प्रवृत्ति-विज्ञान सबीजक नहीं हैं। स्थावर--यह बीज-द्रव्य के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। इनके अनुसार रूप या चित्त का पूर्व क्षण खजाति के अनुसार उत्तर क्षण का चीज होता है । इस प्रकार हेतु-फल पर- भरा व्यवस्थापित होती है । यह वाद अयुक्त है, क्योंकि १. यहाँ वासना का कोई कृत्य नहीं है। पूर्व क्षण वासित नहीं करता अर्थात् बीज की उत्पत्ति नहीं करता । यह उत्तर क्षण का बीज कैसे होगा, क्योंकि यह उसका सहभू नहीं है? २. एक बार व्युच्छिन्न होने पर रूप या चित्त की पुनरुत्पत्ति न हो सकेगी। ( जय अर्ध्व धातु में उपपत्ति होती है तब रूप-सन्तान व्युच्छिन्न होता है।) ३. दो यानो के अशैक्षों का कोई अन्त्य स्कन्ध न होगा। उनके स्तन्धों का सन्तान निर्वाण में निरुद्ध न होगा, क्योंकि मरणासन्न अशैक्ष के रूप और चित्त अनागत रूप और चित्त के बीज हैं। ४. र्याद दूसरे श्राक्षेत्र के उत्तर में स्थविर कहते हैं कि रूप और चित्त क दूसरे के बीज है, ( जिससे ऊर्य धातु के भव के पश्चात् रूप की पुनरुत्पत्ति होती है ) तो हम कहेंगे किन रूप और न प्रवृत्ति-विज्ञान वासित हो सकते हैं । स्वास्तिवादिन्--विक धर्मों का अस्तित्व है । हेनु से फल की उत्पत्ति है, जो पर्याय से हेतु है । फिर क्यो सीजक विज्ञान की कल्पना की जाय ? वस्तुतः सूत्र का वचन है कि चित्त बीज है, चित्त क्लिट-शुद्ध धर्मों का उत्पाद करता है। सूत्र ऐसा इसलिए करता है क्योंकि रूप की अपेक्षा चित्त का सामर्थ्य कहीं अधिक है, किन्तु इसको यह विवक्षित नहीं है कि चित्त सबीजक है। यह वाद प्रयुक्त है, क्योंकि अतीत-अनागत धर्म न नित्य है और न प्रत्युत्पन्न । अाकाश-पुष्प की तरह यह अवस्तु हैं । पुनः इनकी कोई क्रिया नहीं है। अतः यह हेतु नहीं हो सकते। अतः अष्टम-विज्ञान के अभाव में हेतु-फल-भाव नहीं होता। भावविवेक-यह त्रिलक्षणवाद को नहीं मानता । यह लक्षणों का प्रतिषेध करता है। इसलिए इसे अलक्षण महायान कहते हैं | अनुमानाभाय से यह श्रालय-विज्ञान और अन्य धमों का प्रतिषेध करता है। यह नय सूत्र का विरोध करता है। चार आर्य सत्यों की सत्ता का प्रतिषेध करना, हेतु-फल का प्रतिषेध करना मिथ्यापि है । किन्तु मावविवेक कहता है कि हम संवृत्ति-मत्य की दृष्टि से इन सब धर्मों का प्रतिषेध नहीं करते । हम इनके तर, सत्य होने का प्रतिषेध करते हैं।