पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५५१

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अादशमध्याय बीज से अनुपक्त इष्ट है। किन्तु क्लेशबीजानुषक्त चित्त क्लेश का प्रतिपक्ष नहीं हो सकता और क्लेश-त्रीज के प्रहाण के बिना संसार-निवृत्ति संभव नहीं है । अतः यह मानना होगा कि अालय-विज्ञान अवश्य है जो अन्य विज्ञानों के सहभू क्लेश तथा उपक्लेश से भावित होता है, क्योंकि वह अपने बीज से पुष्टि का अादान करता है । जब वामना वृत्ति का लाभ करती है तब सन्तति के परिणामविशेष मे चिन से ही क्लेश-उपक्लेश प्रवर्तित होते हैं । इनका बीज श्रालय में व्यवस्थित है। यह तन्मभू क्लेश-प्रतिपक्ष-मार्ग से अपनीत होता है । इसके अपनीत होने पर इसके आश्रय मे क्लेशों की पुनम पत्ति नहीं होती। इस प्रकार सोपधिशेष निर्वाण का लाभ होता है तथा पूर्व कर्म से अाक्षिप्त जन्म के निरुद्ध होने पर जब अन्य जन्म का प्रतिसंधान नहीं होता तब निरुपधिशे । निर्वाण होता है। इस प्रकार अालय-विज्ञान के होने पर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं । तुलना --इन विविध युक्तियों और अागम के वचनों के आधार पर शुमान-च्यांग सिद्ध करते है कि अालय-विज्ञान वस्तुमत् है । बौद्धों के धर्मना-बाद ( फेनामनलिज्म ) को अात्मा के सदृश किसी वस्तु के अाधार की आवश्यकता थी। हम यह भी देखते हैं कि क्षणिक हेतु-फल-भाव का यह अज्युनिछन्न श्रोध प्राचीन प्रतीत्य-समुत्पाद का समुचित रूप था । शुश्रान-च्यांग कहते हैं कि प्रालय-विज्ञान के अभाव में जो धर्मों के बीजों का धारण करता है, हेतु-फल-भाव अमिद्ध हो जायगा । जैसा हमने ऊपर देखा है, क्षणिक होने के कारण विज्ञान निरन्तर व्युच्छिन्न होते हैं और इसलिए वह स्वतः मिलने का सामर्थ्य नहीं रखते, जिसमें यह सूत्र बन गके जो धर्मों के बीजों का धारण करे और इस प्रकार नैरन्तय व्यवस्थापित करे। धर्मों को जोड़नेवाली यह कड़ी और यह नैरन्तर्य बालय-विज्ञान से ही हो सकता है। अालय-विज्ञान के बिना कर्म और फल की उत्पत्ति अहेतुम होगी। वस्तुतः श्रालय के बिना धर्म स्वतः बीज के बहन में नमर्थ नहीं हैं, क्योंकि अतीत धर्म का अस्तित्व नहीं है और वह हेतु नहीं हो मकते । ग्रालय के बिना हेतुप्रत्ययता असंभव है। यह कहा जायगा कि प्रालय-विज्ञान का सिद्धान्त बौद्धों के मूल धर्मवाद का प्रत्याख्यान है । नागार्जुन ने सर्वप्रथम इसका प्रत्याख्यान किया था। उन्होंने धर्म-नैरात्म्य, धर्मों की निःस्वभावता का बाद प्रतिष्ठापित किया था। उन्होंने धर्मसंज्ञा का विवेचन किया और कालवाद का निराकरण किया। उन्होंने सिद्ध किया कि धर्म शून्य हैं। शुभान-च्चांग एक दूसरे विचार से प्रारंभ करते हैं, किन्तु वह भी धर्मवाद के कुछ कम विरुद्ध नहीं हैं। क्षणिक धर्मों और चैतों का निस्तर उत्पाद एक नित्य अधिष्ठान चाहता है। किन्तु बौद्ध-धर्म के मूल विचार इस कल्पना के विरुद्ध हैं। शुश्रान-च्चांग ग्रालय-विज्ञान की नितान्त आवश्यकता मानते हैं, क्योंकि इसके बिना रुत्व गतियोनि में मंभरण नहीं कर सकते । विज्ञानवाद तथा उपनिषद्-वेदान्त-सांख्य-वैशेषिक के विचायें में भेद इतना ही है कि यह मानते हैं कि अधिष्ठान (जिसे यह आत्मा या पुरुष कहते हैं ) नित्य और स्थिर द्रव्य है, जब कि विज्ञानवादी मानते हैं कि यह आश्रय उन्हीं धर्मों का समुदाय है जो