पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५५३

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अष्टादश अध्याय शुश्रान-च्यांग कहते हैं कि मनस् का आश्रय श्रालय-विज्ञान है । सब चित्त-वैचों के तीन आश्रय हैं । १. हेतु-प्रत्यय आश्रय --यह प्रत्यय बीज है जिसे पूर्व धर्म छोड़ते हैं । २. अधिपति- प्रत्यय श्राश्रय ( इसे सहभू-श्राश्रय भी कहते हैं )। ३. समनन्तर-प्रत्यय आश्रय-यह पूर्व निरुद्ध मनस् है । मनस् में पाठ विज्ञान संगृहीत हैं । इसे क्रान्त-प्रत्यय या इन्द्रिय कहते हैं । हीनयान के लिए यह हेतु-प्रत्ययता पर्याप्त है । प्रत्येक पूर्व धर्म अपर धर्म को उत्पन्न कर निरुद्ध होता है । इसके विपरीत शुमान-च्चांग का मत है कि ऐसी हेतु-प्रत्ययता धर्मों की गति का निरूपण करने के लिए अपर्याप्त है । शुश्रान-च्चांग यहाँ धर्मपाल को उद्धत करते हैं, जो कहते है कि बीजाश्रय में पूर्व-चरिम नहीं है । यह मिद्ध नहीं है कि बीज के बिनाश के पश्चात् अंकुर की उत्पत्ति होती है। और यह ज्ञात है कि अर्चि और दीप अन्योन्य-हेतु और सहभू-हेतु है । हेतु-फल का सहभाव है । इसलिए एक अधिपति-प्रत्यय श्राश्रय की श्रावश्यकता है। सत्र चित्त-चैत्त इस श्राश्रय के कारण होते हैं और इसके बिना इनका प्रवर्तन नहीं होता । इसे सहभू-श्राश्रय या सहभू-इन्द्रिय भी कहते हैं । इसीलिए मनस् का अाश्रय केवल बीज नहीं है, किन्तु श्रालय-विज्ञान स्वयं है। श्रालय-विज्ञान के लिए प्रश्न है कि क्या इसको सहभू-श्राश्रय की श्रावश्यकता नहीं है, और क्या यह स्वयं अवस्थान करता है ? अथवा श्या यह कहना चाहिये कि यह अन्य सबका आश्रय है, और पर्याय से अन्य सब इसके आश्रय है, और यह आश्रय उन बीजों के रूप में है जिन्हें दूसरे उसमें संग्रहीत करते है ? शुश्रान-च्चांग कहते हैं कि पालर-विज्ञान, जो सबका मूल श्राश्रय है, स्वयं अपने श्राश्रित मनस् और तदाश्रित चित्त-चैत्त (प्रवृत्ति-विज्ञान) का आश्रय लेता है । दूसरे शब्दों में जहां एक ओर श्रालय-विज्ञान निरन्तर विज्ञप्तियों का प्रवर्तन करता है वहीं यह सदा विद्वानों के उच्छेप ( बीज ) से जो उसमें संगृहीत होते हैं, पुनः निर्मित होता है। यह कहना श्रावश्यक है, क्योंकि इसके बिना शुश्रान-च्चांग का श्रालय-विज्ञान केवल ब्रान्- आत्मन् होता। समनन्तर प्रत्यय-श्राश्रय के अभाव में चित्त-चैत्त उत्पन्न नहीं होते । चैत्त प्रत्यय हैं, क्रान्त (=क्रम ) अाश्रय नहीं है। किन्तु चित्त प्राश्रय है । अतः चित्त दोनों है। मनस के आश्रय के संबन्ध में हम यहाँ विविध मतों का उल्लेख करेंगे। नन्द के अनुसार मनस् का अाश्रय संभूत अष्टम विज्ञान नहीं है, किन्तु अष्टम विज्ञान के बीच है। यह मनस् के ही बीज है जो अष्टम में पाए जाते हैं, क्योंकि मनम् अव्युच्छिन्न है। इस- लिए हम यह नहीं कह सकते कि इसकी उत्पत्ति एक संभूत विज्ञान के सहभू-प्राश्रय से होती है। धर्मपाल के अनुसार मनस् का श्राश्रय संभूत अष्टम विज्ञान और प्रश्रम के बीज दोनों है। यपि यह अम्युन्छिन है तथापि यह विकारी है, और इसलिए इसे प्रवृत्ति-विशान कहते हैं। अतः हमको कहना चाहिये कि संभूत अष्टम इसका सहभू-श्राश्रय है । हेत प्रत्यय-प्रामप-नन्द और जिनपुत्र के अनुसार फलोत्पाद के लिए बीब का अवश्य नाश होता है। किन्तु धर्मपाल करते हैं कि यह सिद्ध नहीं है कि बीज के विनाश के NE