पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६३

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अष्टादश अध्याय किन्तु स्थिरमति इसके कहने में संकोच नहीं करते कि यह खपुष्प के तुल्य प्रशसिसत् है । शुश्रान-वांग इसका विरोध करते हैं। वह कहते हैं कि इस विकल्प में कोई मी परमार्थ परमार्थ-सत्य न होगा | तब किसके विपक्ष में कहेंगे कि संवृति-सत्य है। तब किसी का निर्वाण कैसे होगा। इस प्रकार निभृत-भाव से विज्ञानवाद परमार्थ-मत्य हो गया । विज्ञप्तिमात्रता मूल, मनस् और पड्विज्ञान इन तीन विज्ञान-परिणामों की परीक्षा कर शुभान-चांग विज्ञप्ति मात्रता का निरूपण करते हैं । हम पूर्व कह चुके हैं कि अात्मा (पुद्गल ) और धर्म विज्ञान-परिणाम के प्राप्तमात्र हैं। यह परिणाम दर्शनभाग और निमित्तभाग के प्राकार में होता है । हमारी प्रतिज्ञा है कि वित्त एक है, किन्तु यह ग्राह्य ग्राहक के रूप में अाभासित होता है । अथवा दर्शन और निमित्त के रूप में अाभासित होता है । दूसरे शब्दों में "विज्ञान का परिणाम, मन्यना करनेवाला और जिसकी मन्यना होती है, जो विचारता है और जो विचारा जाता है, है ! इससे यह अनुगत होता है कि प्रा.मा और धर्म नहीं हैं। अतः जो कुछ है, वह विज्ञप्तिमात्रता है" (शुआन-बांग )। वसुबन्धु त्रिशिका में कहते हैं- विज्ञानपरिणामोऽयं विकल्यो वा विकल्यते । तेन तनास्ति तेनेदं सर्व विज्ञासमात्रकम् ।। ( कारिका १७ ) विज्ञप्तिमात्रता की विभिन्न व्याख्यायें स्थिरमति (पृ० ५३५-३६) इस कारिका का भिन्न अर्थ करते हैं—"विज्ञान का परिणाम विकल्प है | इस विकल्प से जो विलियत होता है. यह नहीं है । अतः यह सब विशप्तिमात्र है।" स्थिरमति इस कारिका के भाष्य में कहते हैं कि त्रिविध विज्ञान-परिणाम विकल्प है : त्रैधातुक चित्त-चैत्त ( अनासव चित्त-चैत्त के विपक्ष में ) जो अध्यारोपित का श्राकार ग्रहण करते हैं, 'विकल्प' कहलाते हैं । यथा ( मध्यान्तविभाग, १, १०) कहा है-- अभूतपरिकल्पस्तु चित्तचैत्तास्त्रिधानुकाः। यह विकल्प त्रिविध है :-ससंप्रयोग श्रालय-विज्ञान क्लिष्ट मनस् , प्रवृत्ति-विज्ञान । म त्रिविध विकल्प से जो विकल्पित होता है (यद् विकल्प्यते) यह नहीं है । भाजनलोक, ग्रामा, स्कन्ध-धातु-अायतन, रूप शब्दादिक विकल्प से विकलिस्त होते हैं । यह वस्तु नहीं है। अतः यह विज्ञान-परिणाम विकल्प कहलाता है, क्योंकि इसका श्रालंबन असत् है । हम कैसे जानते हैं कि इसका श्रालंबन असत् है ! जो जिसका कारण है वह उसके समग्र और अविरुद्ध होनेपर उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं। किन्तु माया, गन्धर्व- नगर, स्वप्न, तिमिरादि में विज्ञान बिना अालंबन के ही उत्पन्न होता है। यदि विज्ञान का उत्पाद श्रालंबन से प्रतिबद्ध होता, तो अर्थाभाव से मायादि में विज्ञान न उत्पन्न होता। इसलिए पूर्वनिरुद्ध तजातीय विज्ञान से विज्ञान उत्पन्न होता है, बाह्य अर्थ से नहीं । बाह्यार्थ के न होने पर भी यह होता है। पुनः एक ही अर्थ में परस्परविरुद्ध प्रतिपत्ति भी देखी गई है।