पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५७०

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बौद्ध-धर्म-दर्शन अाधान करता है। इन शक्तियों की संज्ञा वासना है। वस्तुतः यह शक्तियाँ कर्मजनित वासना से उत्पन्न होती हैं। इन शक्तियों का एक अव्युच्छिल संतान इनके परिपाक-काल पर्यन्त रहता । तब अन्तिम शक्ति फल अभिनिवृत्त करती है | साथ साथ शुश्राद-च्याँग यह दिखाते हैं कि किस प्रकार बीजों की वासना का कार्य प्राहक और ग्राह्य इन दो दिशात्रों में होता है। मिथ्या प्रात्मयाह इन वासनायों और विपर्यास के बीजों के लिए मब से अधिक उत्तरदायी है। इससे जो बीज उत्पन्न होते हैं उनके कारण सत्वों में अपने-पराये का मिथ्या भेद होता है। चित्त की हम सहज विरूपता के कारण संसार-चक्र अनन्तकाल तक प्रवर्तित रहता है। इसके लिए वाह्य प्रत्ययों की कल्पना करने का कोई कारण नहीं है । अथवा प्राध्यात्मिक हेतु-प्रत्यय जन्म-मरण-प्रबन्ध ( या धर्म-प्रबन्ध ) का पर्याप्त विवेचन है । यह बाह्य प्रत्यय पर आश्रित नहीं है । अतः यह विज्ञप्तिमात्र है। एक बार धर्मों की अनादिकालिक प्रवृत्ति से विज्ञप्तिमात्रता का सामंजस्य स्थापित कर शुमान-च्चांग त्रिस्वभाव के वाद से इसका मामंजस्य दिखाते हैं । बौद्धागम में स्थान स्थान पर स्वभावत्रय देशना है। त्रिस्वभाव-वाद नीनी ग्रंथों में विज्ञानवाद के निकाय का एक नाम 'धर्म हिना-मब : । नान स्वभाव, तीन लक्षण कहलाते हैं ( व्युत्पत्ति, पृ०५८७)। बाधिमाल भूमि में 'धर्म नागा' शब्द मिलता है। वहाँ भाव-अभाव से विमुक्त वस्तु को धर्मलक्षण' कहा है। दूररे शो में यह वस्तु 'तथता', धर्मता है। वसुबन्धु ने विस्वभाव-निर्देश नामक एक ग्रंथ लिखा है । जी० तुत्री को नेपाल में मूल संस्कृत ग्रंथ मिला था। इसका प्रकाशन विश्वभारती से हुअा है। यहाँ हम धर्मपाल श्रादि प्राचार्यों का मत दे रहे हैं । स्वभाव तीन है:–परिकल्पित, परतन्त्र, परिनिष्पन्न । 1.परिकल्पित स्वभाव स्थिरमति के अनुसार जिन जिस विकल्प से हम जिस जिस वस्तु का परिकल्प करते हैं बह वह वस्तु परिकल्पित स्वभाव है। विकल्प वस्तु अनन्त है । यह आध्यात्मिक और बाल यहाँतक कि बुद्धधर्म भी विकल्प वस्तु है । जो वस्तु विकल्प का विपश्य है, यमकी सत्ता का अभाव है। अतः वह विद्यमान नहीं है । अतः वह परिकल्पित स्वभाव है। नाद के अनुसार अनन्त अभूत परिकल्प या अभूत विकल्प है, जो परिकल्पना करते हैं। उम रा विकल्प से विविध विकल्प बन्नु परिकल्पित होने हैं। अथीत् स्कन्द- श्रायतन-धातु श्रादि आत्म-धर्म के रूप में मिथ्या गृहीत होते है। इन्हें परिकल्पित स्वभाव कहते हैं। यह स्वभाव परमार्थतः नहीं है। धर्मपाल के अनुमगर 'विकल्प' यह विज्ञान है, जो परिकल्पना करता है । यह पष्ठ और सप्तम विशान है, ओ सामन् और धर्म में मिनिविष्ट है। स्थिरमनि के अनुसार यह बाठों मासव