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             ऊनविंश अध्याय               ४८९

उच्छेद सन्तान-प्रबन्ध का विच्छेद है, परन्तु तत्व में विच्छेद नहीं है, अतः वह 'अनुच्छेद' है।

सार्वकालिक स्थाणुता शाश्वतिकता है, परन्तु तत्व में वह नहीं है, अतः वह 'अशाश्वत' है।

तत्व में न भिन्नार्थता है न अभिन्नार्थता, अत: वह 'अनेकार्थ' और 'अनानार्थ' है।

तत्व में आगम और निर्गम नहीं है, अत: वह 'अनागम' और 'अनिर्गम' रूप है।

इन विशेषणों से निर्वाण की सर्व प्रपंचोपशमता एवं उसका शिवत्व बोधित होता है। यह मध्यमक-शास्त्र का प्रतिपाद्य एवं प्रयोजन है ।

हेतु-प्रत्ययों की अपेक्षा करके ही सकल भावों ( पदार्थ) की उत्पत्ति होती है। आचार्य चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि इस नियम को प्रकाशित कर भगवान् ने भावों की उत्पत्ति के संबन्ध में वादियों के विभिन्न सिद्धांतों का-अहेतुवाद, एकहेतुवाद, विस्महेतुवाद आदि का निराकरण किया है। इसीलिए विभिन्न वादियों का स्वकृतत्व, परकृतत्व, स्वपरोभयकृतत्व का सिद्धांत निषिद्ध हो जाता है । इन वादों के निषेध से वस्तुतः पदार्थों का सांवृत-( अयथार्थ ) रूप उद्भावित होता है, और यह सिद्ध होता है कि आर्य-ज्ञान की दृष्टि से पदार्थ स्वभावतः अनुत्पन्न हैं। अतः प्रतीत्य- समुत्पन्न पदार्थों में निरोधादि नहीं है।

आर्य जब प्रतीत्य-समुत्पाद का उक्त विशेषणों से ज्ञान कर लेता है, तब स्वभावतः उसके प्रपंचों का उपशम होता है । इसलिए आचार्य प्रतीत्यसमुत्पाद का विशेषण 'प्रपंचोपशम' देते हैं। वह 'शिव' है, इसलिए कि वहाँ चित्त-चैत्त अप्रवृत्त हैं। ज्ञान-ज्ञेय-व्यवहार निवृत्त है, इसलिए तत्व जाति-जरा-मरणादि उपद्रवों से रहित है । पूर्व अभिहित विशेषणों से विशिष्ट प्रतीत्य- समुत्पाद की देशना ही मध्यमक-शास्त्र का अभीष्टार्थ है । भगवान बुद्ध ने ही इसे अवगत कराया है, अतः उनके 'अविपरीतार्थवादित्य' ( सत्यवक्ता होने से ) आचार्य प्रसादानुगत होकर उन्हें 'वदतां वर' आदि अनेक विशेषणों से विशेषित करते हैं और प्रणाम करते हैं।

चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि प्रतीत्य-समुत्पाद के इन विशेषणों में यद्यपि सर्वप्रथम निरोध के निषेध का उल्लेख है, जब कि उत्पाद का प्रतिषेध पहले होना चाहिये। किन्तु उत्पाद और निरोध में पौर्वापर्य नहीं है, संसार का अनादित्व है। इसे स्पष्ट करने के लिए अनिरोध का प्रथम उल्लेख आवश्यक हुआ।

स्वतः उत्पत्ति के सिद्धान्त का खण्डन

अन्यवादी पदार्थों की उत्पत्ति स्वतः, परतः या उभयतः स्वीकार करते हैं। परन्तु आचार्य नागार्जुन पदार्थों की उत्पत्ति किसी तरह नहीं मानते। उनके मत में किसी भी दैशिक या कालिक आधार में कोई भी आधेय वस्तु किसी भी संबन्ध से न स्वतः उत्पन्न होती है, न परतः और न उभयतः।