पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६०३

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को अघट के आश्रित होने के लिए निश्चित करना होगा कि क्या असत् घट हो सकता है ? क्या वह पट हो सकता है या कुछ नहीं होता? यदि पट उत्पद्यमान है तो उत्पन्न होकर वह घट नहीं हो जायगा । यदि कुछ नहीं होगा तो क्रिया निराश्रय होगी, फिर तो घट होने की कल्पना दूर रहे; किसी की भी उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए वादी का यह कहना कि उत्पाद उत्यद्यमान पदार्थ की उत्पत्ति करता है, व्यर्थ है । प्राचार्य कहते हैं कि श्रापके मत से उत्पाद उत्पद्यमान पदार्थ का उत्पाद करता है। यह बताइये कि उत्पाद किस दूसरे उत्पाद को उत्पन्न करता है ? यदि अपर उत्पाद पूर्व उत्पाद का उपादक है, तो अनवस्था होगी । यदि उत्पाद स्व और पर का उत्पादन करेगा, तो इस पक्ष का पहले ही निरास किया जा चुका है। स्थिति का निषेध वादी पदार्थों का उत्पाद प्रकारान्तर से सिद्ध करना चाहता है। वह कहता है कि जब पदार्थों की स्थिति है, तो उनका उत्पाद भी मानना होगा, क्योंकि अनुत्पन्न पदार्थों की स्थिति नहीं होती। प्राचार्य कहते हैं कि पदार्थों की स्थिति भी नहीं है। स्थित पदार्थ की स्थिति नहीं होगी, क्योंकि वहां स्थिति-क्रिया निरुद्ध है। अस्थित की स्थिति नहीं होगी, क्योंकि वह स्थिति क्रिया-रहित है । तिष्ठमान की स्थिति मानने से गम्यमान की गति के समान स्थिति-द्वय की प्रसक्ति होगी। श्राचार्य कहते हैं कि जब जरा-मरण क्षण-मात्र के लिए भी पदार्थों को नहीं छोड़ते, तब स्थिति के लिए यहाँ अवमाश ही कहाँ है ? इसके अतिरिक्त जैसे उत्पाद अपना उत्पाद नहीं करता है, वैसे स्थिति भी अपनी स्थिति नहीं करेगी। प्रश्न है कि स्थिति निमद्धयमान पदार्थ की होती है, या अनिरुभ्यमान । निरुध्यमान की स्थिति नहीं होती, क्योंकि विरोधाभिमुख पदार्थ विरोधी स्थिति है। अनिरुध्यमान कोई पदार्थ नहीं होता, अतः उसका कोई प्रश्न नहीं है । निरोधका निषेध वादी कहता है कि यदि संस्कृत धर्मों की अनित्यता है, तो उसके दो सहचारी स्थिति और उत्पाद भी मानने होंग । श्राचार्य अनित्यता नहीं मानते । कहते हैं कि अनित्यता निरुद्ध की, अनिरुद्ध की या निरुद्धधमान की। अतीत निरुद्ध का वर्तमान निरोध से विरोध है । अनिरुद्ध का निरोध उसके निरोध-विरह के कारण संभव नहीं है। निरुद्धधमान के निरोध से निरोप-द्वय को प्रसक्ति होगी। प्राचार्य कहते हैं कि जिन कारणों से धर्मों का उत्पाद सिद्ध नहीं होता, उन्हीं से निरोध भी सिद्ध नहीं होता । इसलिए जैसे उत्पाद का स्वात्मना परात्मना उत्पाद सिद्ध नहीं होता, वैसे ही निरोध का निरोध भी स्वात्मना या परात्मना सिद्ध नहीं होता। वादी कहता है कि निरोध का निरोध नहीं होता तो उस की संस्कृत-लक्षणता कैसे सिद्ध होगी। इसके अतिरिक्त पर संमत विनाश को तो श्राप भी मानते ही हैं। इस स्थिति में उभयसंमत दोष का मैं ही परिहार क्यों कह ?