पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१०

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पौद-धर्म-दर्शन सिद्धान्ती उत्तर देता है कि अमि इन्धन को नहीं जलाता है। इन्धन में यदि अमि हो तो वह इन्धन को जलावे, किन्तु यह अत्यन्त असंभव है । इन्धन से अतिरिक्त कहीं अन्यत्र से अमि का आगमन नहीं देखा जाता, क्योंकि निरिन्धन अमि अहेतुक होगा। इसलिए उसका भागमन क्या होगा और सेन्धन अग्नि के श्रागमन से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार अग्नि इन्धन का अभेद, भेद तथा भेदाभेद पक्ष सिद्ध नहीं होते। इसी प्रकार मापार भाषेय श्रादि पक्ष भी सिद्ध नहीं होते। पूर्वोक्त अग्नि-इन्धन न्याय के आधार पर उपादाता अात्मा और उपादान से पंचस्कन्ध की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि प्रात्मा और उपादान का क्रम सिद्ध नहीं हो सकता । अग्नि-इन्धन के समान ही हम देखते हैं कि उपादान अात्मा नहीं हो सकता, अन्यथा कत्ता-कर्म का एकत्व प्रसङ्ग होगा। उपादाता और उपादान भिन्न भिन्न हैं, यह पक्ष भी अयुक्त है, क्योंकि स्कन्ध से अतिरिक्त प्रात्मा की उपलब्धि नहीं हो सकती। एकत्व और अन्यत्व पक्ष के प्रतिषेध से ही आत्मा स्कन्धवान् है, यह पक्ष भी प्रयुक्त होता है। पूर्वोक्त प्रकार से विचार करने पर आत्मा की निरपेक्ष सिद्धि नहीं होती। इसलिए, कर्म-कारक के तुल्य प्रात्मा और उपादान की परस्परापेक्ष सिद्धि माननी चाहिये। यहां प्राचार्य नागार्जुन कहते हैं कि कर्म कारक की तरह अात्मा और उपादान का तया घटादि की परस्परापेक्ष सिद्धि होती है। किन्तु कुछ सतीर्थ्य तथागत के शासन का अन्यार्थ करते है, और आत्मा की स्कन्ध से अभिन्नता प्रतिपादित करते हैं। उसे शासन के विशेषज्ञ नहीं मानते। नागार्जुन के अनुसार ये लोग परम गंभीर प्रतीत्यसमुत्पाद से अनभिज्ञ है। ये उसके शाश्वत और उच्छेद-राहित्य के रहस्य को नहीं जानते। वे यह नहीं जानते कि शासन में उपादाय-प्रशसि क्या है। पदार्थों की पूर्णपरकोटिशून्यता वादी संसार की सत्ता से आत्मा की सत्ता सिद्ध करता है। यदि आत्मा नहीं है तो जन्म-मरण-परम्परा से संसरण किसका होगा। भगवान् ने अनवराम (श्रादि-अन्त कोटि त्य) जाति-जरा-मरण की सत्ता स्वीकार की हैं । संसार की सत्ता से संसरण-कर्ता आत्मा की सिद्धि होती है। माध्यमिक कहता है कि भगवान् ने संसार की अनवराग्रता कहकर उसकी सत्ता का उपदेश किया है। क्योंकि अलात-चक्र के समान पूर्वापर कोटि-शत्य होने से संसार नहीं है। अवनराम संसार की प्रतिपत्ति अविद्या निवरण युक्त सत्वों की दृष्टि से है, जिससे वे उसके क्षय में प्रवृत्त हो । उसके लिए यह शिक्षा नहीं है, जिसने लोकोत्तर ज्ञान से अपने अशेष क्लेश- वासनाओं को निःशेष कर दिया है। १. अनपरामोहि मिक्षयो जातिवरामाणसंमार इति ।