पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२६

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बौर-धर्म-दर्शन मेरे इस सिद्धान्त में कर्म पाक-काल तक रहता तो नित्यता की आपत्ति होती, निरुद्ध होता तो वह फल उत्पन्न नहीं करता, इत्यादि दोष लगते । अतः पूर्वोक्त श्राक्षेत्रों का मेरा ही समाधान उपयुक्त है 1 विबान्त में कर्म-फल की नि:स्वमावता सिद्धान्ती वादियों के दोनों समाधानों को नहीं मानता, और सिद्धान्त-संमत समाधान करता है। सिद्धान्त में कर्म उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह निःस्वभाव है। कर्म स्वभावतः होता तो वह शाश्वत भी होता; क्योंकि स्वभाव का अन्यथाभाव नहीं होता। कर्म स्वभावत: होता तो अकृत होता; क्योंकि शाश्वत किसी से किया नहीं जाता । शाश्वत विद्यमान होता है, अतःउसके लिए किसी की करणता अनुपपन्न है । वह कारण की अपेक्षा नहीं करेगा। इतना ही नहीं, प्रत्युत कर्म अकृत होगा तो अकृताभ्यागम ( नहीं किये फल की प्राप्ति) दोष भी होगा। जिसने प्राणातिपातादि कर्म नहीं किया उसका भी अकृत कर्म है ही। उससे उसका संबन्ध मानना पड़ेगा। कृषि-वाणिज्यादि क्रियाओं का प्रारंभ धन-धान्यार्थ किया जाता है, किन्तु श्रापके मत में उनके अकृत कर्म विद्यमान हैं, अतः उनका श्रारंभ क्यों किया जाय ? ऐसी अवस्था में पुण्य कर्म और पाप कर्म का भी विभाग नहीं होगा, क्योंकि सबके अकृत पुण्य-पाप विद्यमान रहेंगे । विपक्व विपाक कर्म भी पुनः विपाक-दान करेंगे, क्योंकि अविपक्ष विपाकावस्था स विपक्व विधाकावस्था में कोई अन्तर नहीं होगा । सिद्धान्त में कर्म निःस्वभाव हैं, इसलिए शाश्वत-दर्शन या उच्छेद- दर्शन के दोष नहीं लगते। कर्म निःस्वभाव इसलिए हैं कि उसका हेतु क्लेश निःस्वभाव है। कुशल-अकुशल के विपर्यास की अपेक्षा से जो होते हैं, वह निःस्वभाव हैं; अतः क्लेश नि:स्वभाव हैं । जब क्लेश निःस्वभाव है तो उसका कार्य कर्म सस्वभाव कैसे होगा ? पीछे इसकी विस्तृत परीक्षा से हम निश्चित कर चुके हैं कि कर्म नहीं हैं, फिर कर्ता और कर्भज फल सस्वभाव कैसे होंगे। वादी पुन: एक प्रश्न उठाता है कि आपके मत में भाव निःस्वभाव हैं,तो भगवान् का यह वचन कैसे लागू होगा कि सब को कृत कर्म का विधाक स्वयमेव अनुभव करना पड़ता है । अपनी इस मान्यता से श्राप प्रधान नास्तिक सिद्ध होंगे। सिद्धान्ती कहता है कि हम लोग नास्तिक नहीं हैं,प्रत्युत अस्तित्ववाद और नास्तित्ववाद का निरास करके निर्वाण के अद्वैत-पथ के प्रकाशक है। हम यह नहीं कहते कि कर्म कर्ता और फल नहीं है, किन्तु वह निःस्वभाव है, केवल इसकी व्यवस्था करते हैं । यदि कहो कि निःस्वभाव पदार्थों का व्यापार नहीं बनेगा,तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सस्वभाव पदार्थों में ही व्यापार नहीं होता, निःस्वभाव में व्यापार होता है। क्या आप नि:स्वभाववादी को अपना कार्य करते हुए नहीं देखते। भगवान् ने अपने ऋद्धि के प्रभाव से एक निमितिक को उत्पन्न किया । उत्पन्न निर्मितक ने पुनः एक दूसरे निर्मितक का निर्माण किया। वह तथागत स्वभाव से रहित है, अतः शून्य एवं निःस्वभाव है। दूसरा निर्मितक जो पहले से