पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२७

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ऊनाधिशमन्याव निर्मित है, वह भी निःस्वभाव है। इस दृष्टान्त में निःस्वभाव पदार्थों का नि:स्वभाव ही कार्य- कर्तृत्व तथा कर्म कर्तव्यपदेश सिद्ध होता है, अतः अद्वयवादी माध्यमिक मिथ्यादर्शी नहीं है। अनात्मवाद वादी सिद्धान्ती की कठिन परीक्षा करता है। कहता है कि आपके मत में क्लेश, कर्म, कर्ता, फलादि कोई तस्य नहीं है। मूदों को गन्धर्व-नगरादि के समान अतत्व ही तत्त्वाकारेण प्रतिभासित होते हैं, तो फिर बताइये तत्त्र क्या है ? और उसका अवतरण कैसे होता है ? सिद्धान्ती कहता है कि श्राध्यात्मिक या बाह्य कोई भी वस्तु उपलब्ध नहीं होती, अतः अहंकार-ममकार का सर्वथा परिक्षय करना ही तत्व है। सत्र की सत्कायटि से ही अशेष क्लेश उत्पन्न होते हैं, अतः उन क्लेश और दोषों को योगी अात्मा और विषयों को अपनी योगज बुद्धि से देखकर निषेध करता है। संसार का मूल सत्काय-दृष्टि है। सत्काय-दृष्टि का श्रालंबन अात्मा है, अतः आत्मा की अनुपलब्धि से सत्काय-दृष्टि का प्रहाण होगा और उसके प्रहाण से सर्व क्लेश की व्यावृत्ति होगी। इसीलिए. माध्यमिक प्रात्मा की विशद परीक्षा करते है कि यह ग्रामा क्या है, जो अहंकार का विषय है। अहंकार का विषय श्रान्मा ( जो कल्पित किया गया है ) स्कन्धस्वभाव है या स्कन्ध-व्यतिरिक्त है ? प्रारमा स्कन्ध से भिम या अभिसा नहीं यदि रकन्ध ही अात्मा है, तो उसका उदय-व्यय, उत्पाद और विनाश मानना होगा, और फिर श्रात्मा की अनेकता भी माननी होगी। यदि अात्मा स्कन्ध-व्यतिरिक्त हो, तो उसका लक्षण स्कन्ध नहीं होगा। यदि अात्मा सन्ध-लक्षण नहीं है, तो आपके मत में उसका उत्पाद-स्थिति-भंग लन्नण भी नहीं होगा। ऐसी अवस्था में वह अविद्यमान या असंस्कृत होगा, और खपुष्प मा निर्वाण के समान आत्म-व्यपदेश का लाभ नहीं करेगा। वादी आत्मा का स्कन्ध-व्यतिरिक्त लक्षण करते हैं। वे उसका रूप नित्य,कर्ता,भोक्ता,निगुण, निष्क्रिय श्रादि विविध कहते हैं । अात्मा के स्वरूप के विश्व में वादियों में परस्पर किंचित् भेद है; किन्तु वे सभी प्रात्मा की स्वरूपतः उपलब्धि करके उसके लक्षण का पाख्यान नहीं करते । वस्तुतः उन्हें आत्मा की उपादाय-प्रज्ञप्ति ( जिन स्कन्धादि उपादानों से अात्मा जापित है ) का भी यथावत् बोध नहीं होता । इस प्रकार नामधारी यात्मा के सांवृतिक ज्ञान से भी वादी परिभ्रष्ट हैं । अात्मा के संबन्ध में वादी अपनी मिथ्या कल्पना से और अनुमानामासों से विपलब्ध हैं। वे मोह से ही श्रात्मा की कल्पना करते हैं, और उसके विभिन्न लक्षण करते हैं। कर्म-कारक परीक्षा में आत्मा और उपा- दानों की परस्परापेक्षिक सिद्धि दिखाते हुए उनका सांवृतिक प्रतिषेध किया गया है। मुमुक्षुओं का अात्मा का विचार वह है, जो उपादाय-प्रज्ञाप्त का विषय है। क्योंकि उस में अविद्या-विपर्यास से आत्मा का अभिनिवेश होता है। उस के संबन्ध में यह विकल्प होगा कि स्कन्ध-पंचक जो उपादानत्वेन प्रतिभासित हैं, वह स्कन्ध-लक्षण हैं या नहीं। विचार करने पर उसकी भाव-स्वभावता उपलब्ध नहीं होती। जब श्रात्मा की उपलब्धि नहीं होती, तो अात्म-प्रज्ञप्ति के उपादान पंच-स्कन्ध सुतरां उपलब्ध नहीं होंगे। दग्ध स्थ के