पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३

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बोधिसत्त्व की साक्षात् प्रतिमा प्राचार्य नरेन्द्रदेवधी १६-२-५६ को शरीर के बीणं वसा को त्यागकर उस साक में चले गये, वहाँ सबको बाना है। उनके लिए मानवीय धरातल पर इमारा शोषकुल होना स्वाभाविक है, किन्तु वे जिस धरातल पर जीवित ये, उसे पहचान लेने पर शोक करना पर्य है। प्रत्येक मानव बम और मृत्यु के छन्द से छन्दित है । बीवन और मृत्यु कभी समाप्त न होने वाली संकोच-प्रसार-परिपाटी के रूप हैं । हममें से प्रत्येक व्यक्ति इसी स्पन्दन के नियम से अपने अपने कर्मक्षेत्र में बीवित है। प्राचार्यजी ने प्राण के इस सनातन स्पन्दन को मानवीय धरातल पर मानव के सुख-दुःख को अपना बना कर जितना निकट कर लिया था, वैसा कम देखने में प्राता है। अपने चारों ओर दुःखों से टूटे हुए अभावग्रस्त मानवों को हम सभी देखते है। प्राचार्यवी ने भी उन्हें देखा था। उनका चित्त करुणा से पसीव कर स्वयं उस दुःख में सन गया। उनका वह चित्त जितना उदार था, उतना ही दृढ़ था, इसीलिए वे दुःख के इतने बोक को बहन कर सके । दुःखियों का दुःख दूर करने के लिए दिन-रात दहकने वाली अग्नि उनके भीतर प्रचलित रहती थी। निर्बल देह में बहुत सबल मन वे धारण किये हुए थे। ऐसे करुणा- विगलित चित्त को ही 'बोधिचित्त' यह परिभाषिक नाम दिया जाता है । महाकरुणा, महामैत्री बिन के चित्त में स्वत: अंकुरित होती हैं और बीवन पर्यन्त पुषित और फलित हो कर बढ़ती रहती है, वे ही सचमुच बोधिचित्त के गुणों से धनी होते हैं। प्राचार्यजी को अपने पास स्थूल धन रखते हुए जैसे किसी भारी टोस का अनुभव होता था। लखनऊ विश्वविद्यालय एवं कायो-विश्वविद्यालय में पांच छः वर्ष तक कुलपति पद पर रहते हुए उन्हें जो वेतन मिलता था, उसका लगभग भाषा भाग वे निर्धन छात्रों के लिए रे चालते थे। तब दूसरा प्राधा भाग-वह भी दबे हुए श्रात्मसन्तोष से वे स्वीकार कर पाते थे। अपने समय, शारीरिक शक्ति तथा बुद्धि का अजस दान तो वे करते ही रहते थे। जब से उन्होंने सोचना शुरू किया था, तब से लेकर उनके जीवन के अन्तिम क्षण तक करुणा से प्रेरित उनके महादान का यह सत्र बलता ही रहा। यह दान किस लिए था? महा-यान बौद्ध धर्म के शब्दों में, जिसके बाद का उनके बीवन में प्रत्यच हुआ था, उनका यह दान 'न स्वर्ग के लिए, न इन्द्रपद के लिए, न भोग के लिए और न राज्य के लिए था। उनके जीवन का सत्य इसलिए था कि बो अमुक्त है की मुक करें, वो बिना श्राशा के है, उन्हें प्राया दें, वो बिना अवलंब के है, उन्हें धैर्य और दिलासा दे और बो दुःसी। उनके दुाख की ज्वाला कम करें। प्राचार्यपी कुछ इस प्रकार मोचते 'दूसरे माणियों का दुःख दूर करने में वो भानन्द के लहसते हुए समर का अनुमय है, सके उसी का एक कण चाहिए। मैं पृथिवी के भोग, राज्य अपया नीरव मोक्ष को