पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४

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( 10 ) भी लेकर क्या करूँगा। प्राच कल के युग में इस प्रकार का महान् कास प्रति दुपार है और विरल भी, किन्तु वे स्वभाव से विस पथ के पथिक पे उस पर इसी प्रकार के 'बहुक्न- हिताय बहुजन सुखाय' वाले सुरभित पुष्प विखरे रहते हैं। वह मार्ग बोधिसत्वों के ऊंचे प्रादों से बना हुआ है । सब सत्यों के लिए, प्राणिमात्र के लिए पिसके हृदय में अनुकंपा है वही उस पथ पर चलने का प्रावाहन सुन सकता है। अपने राष्ट्र में बिस समय राष्ट्रपिता ने परिवारों में लालित-पालित कुलपुत्रों को इस प्रकार के करुणामय बीवन के लिए पुकारा, प्राचार्य नरेन्द्रदेव अपने पूर्वसंचित संस्कारों के वेग बल से उस पंक्ति में आकर मिल गए। उन्होंने संसार के अनेक प्रलोभनों की अोर मुड़कर नहीं देखा। विधर पांव रखा, उधर ही पैर बढ़ावे हुए महायात्रा के द्वार तक चले गए। एक बार जो चले, फिर पश्चात्पद नहीं हुए । शरीर साथ नहीं देता था, दूसरों के संचित दुःख को मानो वह उन्हीं पर बार-बार खेल रहा था, किन्तु मन की शक्ति को शरीर को प्रशक्ति कही डांवाडोल कर सकती है। उनके निजी मित्र और हितू चत्र उन्हें श्वास की पीड़ा से हाय-हाय करते हुए और कर्तव्यवश कागव पत्रों पर हस्ताक्षर करते हुए या समाज और राष्ट्र की समस्या पर परामर्श देते हुए देखते थे तो वे अधीर होकर श्राचार्य जी की उस एकनिष्ठा पर खीझ उठते पे और प्राचार्यजी उस खीम को हो अपने लिए शीतल बना कर आगे बढ़ जाते थे। वे त्यागी और साहसी नेता थे। भारतीय संस्कृति, इतिहास, संस्कृतभाषा, महायान, बैदधर्मदर्शन और पालि-साहित्य के उद्भट विद्वान थे। पर वो गुण उनका निजी था, जो उनमें ही अनन्य सामान्य था, वह उनकी ऐसी मानवता थी, जो एक क्षण के लिए भी उन्हें न भूलती थी । यद्यपि लखनऊ विश्वविद्यालय में जब वे कुलपति थे तभी मैं उनसे परिचित हो गया था, तथापि उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के पहलुओं को निकट से देखने का और उनके प्रगाढ़ गुणों को पहचानने का अवसर मुझे काशी विश्वविद्यालय में मिला । मैं नवम्बर सन् १९५१ में और वे एक मास बाद दिसंबर सन् १९५१ में विश्वविद्यालय में पाए । तब से उनका सानिध्य निरन्तर बढ़ता गया। चरित्र और व्यक्तित्व के अनेक गुणों में जिस ऊँचे धरातल पर वे ये उसे मन ही मन पहचान कर मुझे आन्तरिक प्रसन्नता हुई। अन्तःकरण स्वीकार करता था- 'यह एक व्यक्ति है बो इतना निरभिमान है, जिसके व्यक्तित्व को पद का गौरव कमी छू नहीं पाता, जो अपने शील से स्वयं इतना महान है कि उसे और किसी प्रकार के कृत्रिम गौरव की अावश्यता नहीं। वे विश्वविद्यालय के कुलपति थे तो क्या हुआ ? स्वच्छन्द भाव से अध्यापकों के घर पर स्वयं चले आते । पूर्व सूचना को भी श्रावश्यकता नहीं समझते थे। गाय बैठकर बाते करते, अपनी कहते और दूसरे की सुनते थे। वे औरों को भी मानव समझते थे और संभवतः विश्वविद्यालय में कोई ऐसा व्यक्ति न था बिसे उनके साथ इसो प्रात्मीयता का अनुभव न होता हो । कहाँ है ऐसा मानव ! उसे दीपक लेकर दूँदना होगा। था, विश्वविद्यालय के भृत्य, शहर के मेहनती मजदूर और कहाँ-कहाँ के लोग उनके पास नदी के प्रवाह की तरह बराबर माते रहते थे। प्रातःकाल से रात के १०बजे तक यह तांता समाप्त न होता