पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३०

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बौख-धर्म-दर्शन प्रवचनार्थ के तत्वावगाहन में समर्थ हैं। उनकी विशेत्र अधिमुक्ति के लिए, भगवान् बुद्ध ने न प्रात्मा का उपदेश किया न अनात्मा का ही'; क्योंकि जैसे श्रात्मदर्शन अतत्व है, वैसे ही उसका प्रतिपक्ष श्रनात्मदर्शन भी अतत्व है । रत्नकूट सूत्र में उक्त है कि हे काश्यप ! श्रात्मा एक अन्त है, नैरात्म्य दूसरा अन्त है, जो इन दो अन्तों के मध्य में है, वह अरूप्य, अनिदर्शन, अप्रतिष्ठ, अनाभास, अविशप्तिक, अनिकेत कहा जाता है। यही मध्यमा-प्रतिपत् है और धर्मों के संबन्ध की यथार्थ दृष्टि है । तथागत के प्रवचन का प्रकार एक प्रश्न है कि भगवान बुद्ध ने जब अात्मा और अनात्मा की देशना नहीं की तो उनकी देशना क्या है? प्राचार्य कहते है कि चित्त का कोई प्रालंबन ( विषय ) नहीं है । चित्त का कोई विषय होता तो किसी निमित्त का प्रारोपण करके याणी की प्रवृत्ति होती। जब चित्त का विषय ही अनुपपन्न है तो निमित्त का अध्यारोप और वाणी की प्रवृत्ति का प्रश्न ही कहाँ उठता है। पदार्थ का स्वभाव निर्वाण के समान अनुत्पन्न और अनिरुद्ध है, अतः चित्त की प्रवृत्ति नहीं है । इसलिए भगवान बुद्ध ने कोई देशना नहीं दी। तथागतगुह्यसूत्र में उक्त है कि हे शान्तमति ! जिस रात्रि में तथागत ने सर्वश्रेष्ठ सम्यक्-संबोधि प्राप्त की और जिस रात्रि में उनका परिनिर्वाण हुआ। इनके मध्य तथागत ने एक अक्षर भी उदाहार-व्याहार नहीं किया । किन्तु प्रश्न है कि भगवान् ने सकल सुरासुर, नर, किन्नर विद्याधरादि विनेय जन को विविध प्रकार की धर्म-देशनाये कैसे दी १ भगवान् ने एक क्षण के लिए वाणी का उदाहार किया था जो विविध जन के मनस्तम का हरण करनेवाली और विविध प्रकार के बुद्धिवालों को विबुद्ध करनेवाली थी । वस्तुतः जैसे थन्त्रीकृत तूरी वायु के झोकों से बजती है, उसका कोई वादक नहीं होता, किन्तु शब्द निकलते हैं। इसी प्रकार सत्वों का वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की विकलहीन वाणी निक्षित होती है । जैसे प्रतिध्वनि के शब्द बाह्य और अन्तः स्थित नहीं हैं उसी प्रकार बुद्ध की वाणी बाह्य और अन्तः स्थित नहीं है । माध्यमिक नास्तिक नहीं है एक वादी माध्यमिक को नास्तिक कहता है; क्योंकि माध्यमिक कुशल-अकुशल कर्म, कर्ता और फल सबको स्वभाव-शन्य कहता है। नास्तिक भी इन सबको अस्वीकार करते हैं, इसलिए माध्यमिक नास्तिकों से मिल नहीं हैं। ..मुबैमा म शानारमा कश्चिवित्पपि देशितम् । २. पात्मेति कारमप ! प्रथमेकोऽन्तः। नैसम्पमिस्वयं द्वितीयोऽन्तः । यदेवबोरसपोर्मण्यं तवरूप्यनिदर्शनमप्रतिष्मनाभासमविज्ञप्तिकमनिकेतमिषमुन्यते काश्यप ! मध्यमा प्रति- पदुपाणां भूतप्रत्ययेति । (म.का. पृ. ३५८)