पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३२

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बौद्ध-धर्मन ओ तत्वदर्शन का चिरकाल से अभ्यास कर रहे हैं, और जिनका आवरण थोड़े में ही छिन होनेवाला है, उन विनेयों की दृष्टि से भगवान् ने 'नैव अतथ्यं नैव तभ्यम्' का उपदेश दिया। भगवान् का यह प्रतिषेध-वचन अध्यासुत न गौर है, न कृष्ण है। इस प्रतिषेध- वचन के समान है। बुद्ध का इस प्रकार का अनुशासन इसलिए, यथार्थ अनुशासन है कि वह उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में प्रतिष्ठित करता है। उनका यह विनेय जन के अनुरूप शासन है। भगवान् की यह देशना तत्वामृत के अवतारण का उपाय है। भगवान् ऐसा एक वाक्य भी नहीं कहते, जो तत्वामृत के अवतार का आग न हो। आर्यदेव ने चतु:शतक में कहा है कि भगवान ने सत् , असत्, सदसत्, न सत्, न असत् का जो उपदेश किया है, यह समस्त विविध व्याधियों की अनुरूप औषधि है । तस्वकालण यद्यपि माध्यमिक सिद्धान्त में तत्व का परमार्थ लक्षण नहीं हो सकता, तथापि व्यवहार-सत्य के अनुरोध से जैसे वह अनेक लौकिक तथ्यों का अभ्युगम करता है, वैसे ही तत्व का भी आरोपित लक्षण करता है। पहले कृतकार्य प्रार्य की दृष्टि से तत्व का लक्षण करेंगे, पश्चात् लौकिक कार्य-कारण भाव की दृष्टि से । अपरप्रस्थयम-तत्व परोगदेश से गम्य नहीं है, प्रत्युत स्वयं अधिगन्तव्य (स्वसंवेद्य) है। जैसे-तिमिर रोग से श्राक्रान्त व्यक्ति असत्य केश-मशक-मक्षिकादि रूप को देखता है। उस रोग से अनाक्रान्त व्यक्ति उस रोगी को केश का यधावस्थित रूप दिखाना चाहे तो व्यर्थ होगा। हाँ, उसके उपदेश से रोगी को केवल अपने ज्ञान का मिथ्याल्य मात्र ज्ञात होगा। तिमिर-नाश के अनन्तर उस्तु का स्वयं साक्षात्कार होगा। इसी प्रकार जब परमार्थभूत शून्यता-दर्शन के अंजन र बुद्धिरूपी नग्न अंजित होगा, तत्र तत्वज्ञान उत्पन्न होगा, श्रीर तत्व स्वयं अधिगत होगा। सासम-तत्व शान्त स्वभाव है, क्योंकि स्वभाव-रहित है । अपरमपन्वितम्-प्रपञ्च वाणी है, क्योंकि वाणी द्वारा अर्थ प्रपञ्चित होता है । तत्य प्रपञ्च से अप्रपञ्चित है, अर्थात् वाणी का विश्य नहीं है । निर्विकल्पम्-विकल्प चित्त का प्रचार है । तत्व उससे रहित है। मनामार्यम्-त -तत्व में भिन्नार्थता नहीं है। वह अभिन्नार्थ तत्पशन्यता से पकरस है, इसलिए अनानार्थता उसका लक्षण है। तल का लौकिक-लक्षण शाश्वतवाद और उच्छेदवाद का व्यावर्तन कर सिवान्त- संमत कार्यकारणभाव के द्वारा तत्व का अधिगम कराता है। जिम कारण की अपेक्षा करके जो कार्य उत्पन्न होता है, वह अपने कारण से अभिन्न नहीं है। बीज और अंकुर एक नहीं है । अन्यथा स्कुरावस्था में अंकुर के समान बीज भी