पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५५

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विज्ञ सदाब रूप क्या है ? किन्तु उसकी जिज्ञासा इस बात की रही है कि चाहे नाम हो या रूप, पदार्थों के विवेचन से अन्तिम तत्व कौन से टहरते है ? चित्त-वैत्त को भी उन्होंने कतिपय धर्मों में विभक्त किया है। यह धर्म साथ-साथ रहते है; एक दूसरे में मिलते नहीं, किन्तु हेतु-प्रत्ययवश अन्योन्य संबद्ध है । इन नियमों के अनुसार इनका कमी सहोत्पाद होता है, कभी इनकी निरन्तर उत्पत्ति होती है। अतः किसी प्रात्मा की सत्ता यह स्वीकार नहीं करते । जिसे दूसरे आत्मा कहते हैं, वह इनके अनुसार वेदना, संशा, संस्कार और विज्ञान धर्मों का समुदायमात्र है, जिनका कारित्र हेतु-प्रत्यय के नियमों के अधीन है। बौद्ध संघात-द्रव्य को प्रज्ञप्तिमात्र मानते हैं, और केवल धर्मों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इस सिद्धान्त को यह सर्वत्र, अर्थात् चित्त-चैत्त तथा रूप-धर्मों में लागू करते हैं। उनके अनुसार द्रव्य-गुण का संबन्ध नहीं है । वेदना ( अनुकूल या प्रतिकूल ), संस्कार (चेतना), संज्ञा और स्वयं विज्ञान यह सब पृथक् धर्म हैं । इनकी सहक्रिया हममें श्रात्मा का भ्रम उत्पन्न करती है, जो वस्तुतः इन धर्मों के बाहर नहीं है। जैसा संघातरूप के लिए है, वैसा ही चित्त-चैत्त के संघात के लिए कम से कम एक नियत संख्या के धर्मों का होना श्रावश्यक है । चित्त-चैत्त में कुछ मौलिक या सामान्य धर्म होते हैं, जो चिन के प्रत्येक क्षण में मदा वर्तमान होते हैं, और कुछ ऐसे धर्म हैं जो अनियत हैं, जो कुशल-अकुशल हैं और जो उस क्षण के स्वभाव के कारण है। सामान्य धर्म दश हैं । गौण धर्म की संख्या अनियत है, और यह कभी कुशल कभी अकुशल या श्रव्याकृत चित्त में होते हैं । सामान्य धर्म महाभूमिक कहलाते हैं, क्योंकि यह सर्व चित्त में सदा होते हैं। इनका पुनः विभाग व्यवदान और संक्लेश के आधार पर किया जाता है। महाभूमिक धर्म दस प्रकार हैं :-(१) वेदना ( सौमनस्य या दौर्मनस्य ), (२) चेतना, (३) संज्ञा, (४) छन्द, (५) सर्श, (६) मति, (७) स्मृति, (८) मनस्कार (६) अधि- मोक्ष और (१०) समाधि । यह दश महाभूमिक धर्म चित्त की श्रावृत करते हैं । विज्ञान के अभाव में यह दश धर्म विज्ञप्ति न होंगे। इनके अतिरिक्त दो और धर्म है, जो सब चित्तों में सामान्य हैं, किन्तु जो कामधातु से ऊर्य के धातुओं में तिरोहित हो जाते हैं, जब कि विज्ञान समाधि की अवस्था में उन धातुत्रों में प्रविष्ट होता है । वह वितर्क और विचार है । वितर्क बालंबन में नित्त का प्रथम प्रवेश है। अालंबन में चित्त की अविच्छिन्न प्रवृत्ति विचार है। इसीलिए कहते हैं कि वितर्फ श्रौदारिक है, और विचार सूक्ष्म हैं। यह वितर्क और विचार प्रत्येक चिन के साथ होते हैं, किन्तु जब योगी ध्यानावस्था में समाधि-बल से रूप-धातु और श्ररूप-धातु में प्रविष्ट होता है, तब इनका तिरोभाव होता है, द्वितीय ध्यान से अर्व यह नहीं होते । इन दो को लेकर चित्त-संघात के बारह परमाणु होते हैं। गौण-धर्म जैसा हमने ऊपर कहा है, कुशल या अकुशल हैं। कुशल-महाभूमिक धर्म दश है :-श्रद्धा, वीर्य, उपेक्षा, ही, अपत्रपा,अप्रमाद, मूलद्वय, अविहिंसा, प्रन्धि । इस प्रकार कुशल चित्त में २२ धर्म होते हैं। संप्रयोग हेतुवश यह सदा एक साथ उत्पन्न होते हैं।