पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५६

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यह सहभू-हेतु से मित्र है । अकुशल चित्त में १२ धमों के अतिरिक्त कुछ और धर्म होते हैं। प्रत्येक अकुशल कर्म के मूल में नही और अनपत्रमा पाये जाते हैं। अही गुरुता है, लबा का अभाव है। अवा-करण में श्रही का श्रात्मापेक्षया लबा का अभाव है, अनपत्राप्य परा- पेक्षया लला का अभाव है। यह वह धर्म हैं, जिसके योग से पुद्गल दूसरे के अवध का अनिष्ट फल नहीं देखता । ही वह धर्म है, जिसका पालन करना भिक्षु के लिए अति आवश्यक है। अनिष्ट का एक कारण श्रही बताया गया है। बौद्धों का विचार है कि प्रत्येक पाप कर्म के पूर्व- वो चित्त में इन दो धर्मों के प्रभाव पाये जाते हैं । किन्तु इस विवेचन में अनेक कठिनाइयां पाई जाती हैं। कुछ धर्म परस्पर विरोधी हैं। वह एक ही चित्त-क्षण में साथ नहीं रह सकते । यथा-एक ही अर्थ के प्रति प्रेम और विद्वेष साथ नहीं रह सकते । अन्य का अवश्य संप्रयोग हो सकता है; यथा वेदना और संशा का। इसके विपरीत न्यायदर्शन में एक चित्त-क्षण में एक ही धर्म का अस्तित्व माना जाता है। बौद्धों के अनुसार यपि चित्त-क्षण में कम से कम २२ धर्म माने गये हैं, तथापि उनकी तीव्रता सदा एक सी नहीं होती। प्रत्येक चित्त-अवस्था में एक धर्म की प्रधानता होती है, और यह धर्म अन्य धर्मों को कम अधिक अभिभूत करता है । इसी प्रकार का एक वाद रूप-धर्मों की विविधता को समझाता है । यद्यपि महाभूतचतुष्क सर्वत्र सममात्रा में समान रूप से होते हैं, तथापि इनमें से किसी एक महाभूत का प्राधान्य और उत्कर्ष हो सकता है, जिसके कारण भौतिक कमी मूर्त- रूप, कभी तरल द्रव्य, कभी वायु और कभी अग्नि के आकार में प्रादुर्भूत होता है । अतः इन्हीं धर्मों का अस्तित्व है। कोई संघात द्रव्य नहीं है । यह कहना ठीक नहीं होगा कि पृथिवी गन्धवती है, क्योंकि पृथिवी स्वयं एक गन्ध है । द्रव्य प्राप्तिमात्र है, यथा आत्मा प्रज्ञप्तिमात्र है। यह धर्म संस्कार है । इसकी इससे भी पुष्टि होती है कि धर्मों का उदय-व्यय क्षणिक है। जिसका अस्तित्व है, वह क्षणिक है। क्षणों की प्रत्येक सन्तति, स्थिति परिकल्प है । दो क्षण जिनका नैरन्तर्य है, दो भिन्न धर्म हैं । वस्तुतः गति संभव नहीं है। धर्मों के प्रत्येक क्षण का उदय-व्यय होता है । पाणि- पाद का आदान-विहरण उसका द्वितीय क्षण में अन्यत्र अभिनव संस्थान के साथ उत्पन्न होना है। इस प्रकार धर्म गणितशास्त्र के बिन्दु के समान है। यह भिन्न संस्कारों के केन्द्र हैं, जिनका प्रति क्षए उत्पाद-विनाश होता रहता है। यह चित्र दो भूमियों में प्रकट होता है। अधोभूमि में बिन्दु और क्षण हैं। न कोई द्रव्य है, न वर्ण-संस्थान है, न स्थिति है और न कोई श्राकार है । ऊर्श्वभूमि में एक दूसरा लोक है, जो परिकल्प से निर्मित है। अतः दो मिन्न वस्तु, है :-१. तत्व, जहाँ इन्द्रिय विशान और गणित के बिन्दु के समान क्षण है। नो पर परिकला द्वारा पहले पर ग्रारोपित होता है। २. व्यावहारिक तत्व,