पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६१

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सूक्ष्म-नित्य काल का अनवयवत्व, सभागत्व और अनन्तत्व तहु संप्रदायों को इष्ट है। इसी को हम दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि काल एक और असम है। इसकी जाति नहीं है । तथापि हम क्षणादि समय के विभागों का उल्लेख करते हैं। इन दो को हम कैसे समझे ? इस कठिनाई का यह समाधान है-आधिवश ऐसा होता है । जैसे एक श्राकाश घटादिवश अनेक विभागों में विभक्त दीखता है, उसी प्रकार काल एक होते हुए भी क्षण से प्रारंभ कर परार्ध तक बृहत् और लघु काल-विभागों में विभक हुश्रा भासमान होता है । अतः काल के यह मब विभाग औपचारिक हैं, क्योंकि वस्तुतः हम काल का मान नहीं लेते; किन्तु केवल उन भौतिक द्रव्यों का मान लेते हैं, जिनका काल में अवस्थान है—कालस्यापि विगुग्वेऽपि उपाधियशादौपाधिको भेदव्यवहारोऽस्ति (मानमेयो- दय, पृ० १६१)। मीमांसक निम्न दृष्टान्त भी देते हैं । जैसे—नित्य, सर्वगत वर्ण दीर्घादि रूप में ध्वनि की उपाधि के कारण विभक्त भासित होते हैं, उसी प्रकार काल भी स्वयं अभिन्न होते हुए सूर्य की प्रतिक्रियावश भिन्न भासित होता है । ( यथा हि वों नित्यः सर्वगतोऽपि दोर्धादि- रूपेण विभक्तो भासते ध्वन्युपाधिवशात् , तथा कालोऽपि स्वयमभिन्नोऽपि श्रादित्यस्य गति- क्रियोपाधिवशाद् भिन्नो भासते। अतः विनु-सूक्ष्म काल की विविधता स्थूल द्रव्य, उसकी गति और उसकी उपाधि के कारण है। काल के विभक्त होने के प्रश्न से एक दूसरा बटिल प्रश्न संबन्धित है, जिसका संबन्ध अनित्यता के प्रश्न से है। काल प्रवाह में नो पतित होता है, वह अनित्य है और उसका अन्यथात्व होता है । काल विकल्प-भावों को जन्म देता है, उसका पाक करता है ( पचयति ) और अन्त में उनका भक्षण करता है। हम ऊपर कह चुके हैं कि काल भावों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का साधारण कारण है, भव के यह तीन श्राकार हैं। इनके समकक्ष काल तीन विभागों में विभक्त किया जाता है। इन तीन विभागों का तादाम्य भविष्यत् , वर्तमान और भूत इन तीन कालों से है:--कालस्तूत्पत्ति-स्थिति-विनाशलक्षणस्त्रिविधः (सप्तपदार्थी, १४)। मितभाषिणी में है:--कालस्योपाधिकं विभागमाह-उत्पत्तीति । पदार्थानामुत्पत्ति-स्थिति- विनाशेलक्ष्यत इत्युत्पत्तिस्थितिविनाशलक्षण उत्पत्या भविष्यत् , स्थित्या वर्तमानः, विनाशेन भूतकालो लक्ष्यत इति त्रिविधः । यह विभाग केवल औपाधिक है । ( काल एक, अनवयवी, अकलद्रव्य है ) दूसरे शब्दों में काल में स्वयं गति नहीं है, किन्तु व्यवहार में जो भाव इसके प्रवाह में पतित है, उनकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश होता है, और इस अन्यथास्व का प्रतिबिंब काल के पटपर पड़ता है, और ऐसा भासित होता है मानों काल के तीन विभाग हो गये हो।'