पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६९

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विशवाय २८ कारित्र की यही व्याख्या संघभद्र देते हैं-कारित्र = फलाक्षेप-शक्ति । अतीत कर्म यद्यपि अभी उनकी फलोत्पत्ति नहीं हुई है, वर्तमान नहीं है। क्योंकि उन्होंने आक्षेप कर्म पहले ही कर लिया है। ( न्यायानुसार, ६३१ श्री०) अब एक अन्तिम विवाद-प्रस्त विषय पर विचार करना है। फलाक्षेप-शक्ति (कारित्र) और धर्म-स्वभाव या स्वरूप में क्या संबन्ध है। जितने वाद त्रिकाल सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं, वह सब एकमत से इसपर जोर देते है कि जब एक धर्म कालाव से गुजरता है, तो वह अपना स्वभाव नहीं बदलता; उसके केवल भाव ( व्यवहार-श्राकार, धर्मत्रात ) या अवस्था ( वसुमित्र ) का परिवर्तन होता है। इन दो आख्यानों की विस्तार से व्याख्या नहीं मिलती। इसलिए, इनके प्रयोगमात्र से इनका प्राशय समझ में नहीं पाता । केवल दृष्टान्तों द्वारा इनका अर्थ समझाया गया है । वसुमित्र गुटिका का उदाहरण देते हैं, जहाँ एक ही गोली अवस्थाभेद से मिल संख्या हो जाती है ( १,१०० या १०००)। इस उदाहरण में स्थान की अवस्था का ही भेद है। किन्तु नमुमित्र के लिए धर्म की काल-अवस्था देशस्थ नहीं है, और इसलिए अवस्था शब्द का व्यवहार उपचारेण है। धर्मत्रात 'भाव' के संबन्ध में कुछ अधिक निश्चित रूप से कहना कठिन है । यह कोई गुण है या सत्ता का श्राकार है ? डाक्टर जान्स्टन का विचार है कि कदाचित् यह सांख्यों के गुण के सदृश है । ( अली सांख्य, पृ० ३१)। वैशेषिक दर्शन ने कदाचित् इन सब कठिनाइयों को अनुभव किया था, लिए उन्होंने कारित्र की अनिर्वचनीयता को यथार्थ माना था । महाविभाषा ( पृ० ३६४ सी) में निम्न विवाद मिलता है-- प्रश्न-कारित्र और स्वभाव एक है या भिन्न ? उत्तर--यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह भिन्न है या एक । जिस प्रकार प्रत्येक सालव धर्म का स्वभाव अनेक लक्षणों से समन्वागत होता है, यथा अनित्यादि और यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह लक्षण भिन्न है या अभिन्न, यही बात यहाँ भी है । अतः ( कारित्र और स्वभाव का संबन्ध) अनिर्वचनीय है । संघभद्र ( न्यायानुसार, ६३३ ए) एक दूसरा उदाहरण देते हैं-कारित्र और स्वभाव का संबन्ध उसी प्रकार निश्चित नहीं हो सकता, जिस प्रकार धर्म और सन्तान का संबन्ध । एक शब्द में कारित्र और स्वभाव अभिन्न भी हैं, और मिन्न भी है। वैभाषिकों की यह उकि कि जब एक धर्म त्रिकाल में भ्रमण करता है, तो केवल कारित्र, न कि स्वभाव बदलता है, और तिस पर भी यह नहीं कहा जा सकता, कि कारित्र स्वभाव है, और न यही कहा जा सकता है कि कारित्र का अस्तित्व स्वभाव से स्वतन्त्र है। सौत्रान्तिकों द्वारा उपहासास्पद बना दी गयी है। और इसी-