पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७

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उनके बाल्यकाल पर उनके पिता के सनातनधर्मी भावनाओं एवं कर्मकांडों का प्रभाव पड़ा। उनके पिता के कारण उन दिनो फैजाबाद सनातनधर्म का गढ़ था । अपने पिता के साथ- साथ उन्होंने बाल्यकाल में सनातनधर्म और आर्यसमाज के अनेकानेक विराट अधिवेशनो को देखा था और उनमें धुआंधार खंडन मंडनात्मक शास्त्रार्थ और भाषण भी सुने थे। उन्हीं दिनों रुद्राष्टाध्यायी' और 'अष्टाध्यायो के माध्यम से उन्हें संस्कृत एवं संस्कृति की शिक्षा मिली। त्रिकाल नहीं तो द्विकाल संध्या उनके लिए अनिवार्य थी। इस प्रकार उनके प्रारंभिक निर्माण में धार्मिक प्रभावों का प्राधान्य था। उन्हीं दिनों अपने घर में स्वामी रामतीर्थ की प्रखर तेजस्विता का उन्हें अनेक बार साक्षात्कार हुआ था। इसका भी उनपर स्थायी प्रभाव पड़ा। कालेज में आते ही बंगाल की राष्ट्रीय चेतना की लहर ने उनके विद्यार्थी बीवन को नया सन्देश दिया । अब जीवन की चेतना और अध्ययन में परस्पर श्रादान-प्रदान प्रारंभ हुश्रा और उसमें धीरे-धीरे समरसता भी आने लगी। जीवन की इसी चेतना ने भारतीय संस्कृति और इतिहास के प्रति उनमें विशेष श्राकारण उत्पन्न किया । डाक्टर वेनिस ओर प्रोफेसर नार्मन ने उनके अध्ययन को विकसित किया और विशेष प्रकार से सजाया । डाक्टर वेनिस ने उन्हें दर्शन भी पढ़ाया । उसके प्रति उनमें अभिमनि उत्पन्न की। दर्शन के विभिन्न सूत्रग्रन्थ एवं माप्यों का अभ्ययन उन्होंने बनारस संस्कृत कालेज के अभ्यासक पण्डित जोक्नाथ मिश्र आदि से किया था। अतक पाश्चात्य दर्शनों से वे परिचित हो चुके थे किन्तु जीवन-संबन्धी दर्शन की निज्ञासा उत्तरोत्तर प्रबल होती जा रही थी। पालि और बौद्ध दशन के अध्ययन ने उन्हें नेतिक एवं श्राध्यास्मिक मान्यताओं की चमत्कारपूर्ण व्याख्या दी । इससे उन्हें मानवीय मूल्यों के सर्कसंगत एवं हृदयग्राही स्वरूप का प्रत्यक्ष हुअा। बौद्धों का गतिशील दर्शन, मानव-मन के भेद और उसकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का विस्तृत विश्लेषण, व्यक्ति के द्वारा सर्व (समाब) के उद्धार का संकल्प और बुद्धिवादिता, इसके अतिरिक्त जातिवाद, शास्त्रवाद और देवाधिदेववाद आदि का विरोध, ये तत्व ऐसे मानवीय एवं सामाजिक है, जो पुराना मान्यताओं को नवीन हष्टि से देखने की शक्ति प्रदान करते हैं। नाचार्य जी ने इसी प्रस्थान-बिन्दु से समस्त भारतीय संस्कृति का पर्यवेक्षण किया था। भारतीय संस्कृति के पर्यवेक्षण की यह नवीन शकि इन्हीं दिनों उनमें प्रादुभूत हुई। समाजवाद के अध्ययन से तो उसपर एक नयो चमक श्री गयी। प्राचार्य जी का जीवन बौद्धा की नैतिक दृष्टि से बड़ा ही प्रभावित था । आर्य यांतिदेव के 'बोधिचर्यावतार' के हृदयमाही यद्य उन्हें बड़े ही प्रिय थे। प्रायः अपने मित्रों को इसके पय सुनाया करते थे और पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। काल का व्यंग्य कि जो अन्य उनके पूरे जीवन में प्रिय था उसे जब पेरु दुराई के विश्राम-काल में पढ़ने के लिए अपने मित्र श्री श्रीप्रकाथ बी के द्वारा मद्रास विश्वविद्यालय पुस्तकालय से उन्होने भंगाया तब उसकी एक पंकि भी पदने के पहले ही इस लोक से चले गये । जो पथ उनको बहुत प्रिय थे उनमें शांतिदेव के वे पद्य ये बिनका सारांश है कि 'जब मत लोक दुख से मात और दीन है तो मैं ही इस रसहीन मोक्ष को प्राप्त कर क्या