पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद्ध-धर्म-दर्शन पृथिवी से औषधियां, श्रौषधियों से अन, अन्न से शुक्र, शुक्र से पुरुष उत्पन्न होता है । प्रायः भूताकाश को अनन्त विक् बताया गया है, जिसमें यावापृथिवी, अग्नि-विद्युत् , वायु, चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र समाहित है। इस अर्थ में यह नभस् अंबर का पर्याय है। नभस् से अनन्त दिव्य लोक समझे जाते हैं। दिग्पाद और श्राकाशवाद के साथ ब्रह्मतत्व संबन्धित है, जो शब्द की निष्पत्ति करता है। इस वाद का स्पष्ट उल्लेख उपनिषदों में नहीं है । शब्द का एक अस्पष्ट संबन्ध दिक् से है। इसका आयतन अाकाश है। छान्दोग्य में यह विचार अधिक स्पष्ट है-दिक् के कारण सुनते हैं, बुलाते हैं, उत्तर देते हैं। यहां उस अर्थ का प्रभव मिलता है, जिससे आगे चलकर आकाश का अर्थ शब्द का उपादान हो गया। भारतीयों का विचार था कि विज्ञानेन्द्रियों की क्रिया केवल प्राप्यकारि अर्थों के स्पर्श से संपल होती है । शब्द-तत्व और भोत्रेन्द्रिय के बीच वह स्वभावतः एक श्राकाश-अवकाश की कल्पना करते थे। अत: यह कल्पना उनके लिए स्वाभाविक थी कि दिक् इन दोनों के बीच एक द्रव्य है। पीछे से यह कल्पना जोड़ी गई कि यह अवकाश एक द्रव्यविशेष से प्रावृत है, जो शब्द का उपादान है । अाकाश अवकाश है, सूर्य और चन्द्र के बीच का अवकाश है। गर्मोपनिषत् (११) में कहा है कि इस पंचात्मक शरीर में जो सुपिर है, वह अाकाश है। अन्त में आकाश ब्रह्म का प्रतीक है। कुछ स्थलों में आकाश का तादात्म्य ब्रह्म से बताया है। इस प्रकार उपनिषदों की शिक्षा के अनुसार श्राकाश सृष्टि का प्रथम तत्व, अवकाश, शब्द का उपादान, विश्वव्यापी दिक्, ब्रह्म है। यह न देखा गया कि यह विविध भाव भिन्न है । दर्शनों में हम इन सब भावों को पाते हैं । कोई एक अर्थ चुनता है, कोई दूसरा । न्याय- वैशेषिक आकाश को शब्द का अाश्रय मानते हैं। बौद्ध उसे अनावृत कहते हैं, और वेदान्त उसे सृष्टि का प्रथम तत्व मानता है उपनिषदों में आकाश के अतिरिक्त दिक् शब्द भी मिलता है, जो मुख्यतः दिशाओं के अर्थ में प्रयुक्त होता है । किन्तु जिसका अर्थ अनन्त दिग्-द्रव्य भी है। उसका अन्त नहीं मिलता, क्योंकि दिशाएँ अनन्त हैं। यही श्रोत्र है, श्रायतन है, अाकाश है, प्रतिष्ठा है, अनन्त है। यही द्रव्य है ( बृहदारण्यक, ६।११५) । पी के दर्शनों में इसका उपयोग वहां किया गया है, जहाँ कुछ कारणों से दो भिन द्रव्य स्वीकार करने पड़ते हैं, जो भिन्न प्रकार के दिक् को निरूपित करते हैं। उपनिषदों में दिक्का ऐसा अर्य नहीं है। जैन साहित्य में किसी भौतिकवाद का उल्लेख है। (श्रीडर, पृ. ५३)बो नित्य तत्वों में दिक् या आकाश को भी परिगणित करते थे । इस वाद का नाम भूतवाद और पांचौतिक है । इसके अनुसार भौतिक द्रव्य नित्य है, और उनसे सत्यलोक और भाजनलोक ।