पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७५

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विशअध्याय अनुमान हो सकता है कि आकाश पांचवां महाभूत माना जाता है। किन्तु अभिधम्म में अाकाश महाभूत नहीं है, यद्यपि यह धातु है। धम्म-संगणी में आकाश को देवताओं का लोक कहा है । यह अनावृत है, और यह स्पष्ट किया गया है कि इसका कोई संबन्ध महाभूतों से नहीं है । बुद्धघोष 'प्राकास-धातु' की वही व्याख्या करते हैं, जो वैशेषिक में (२२।१०) 'दिश्य' की की गई है :-'श्राकास-धातु' का लक्षण रूप-परिच्छेद है। इसके कारण परिच्छिन रूपों में यह प्रतीति होती है कि यह इससे ऊर्ध्व है, अधः है या तिर्यक् है ( इदमितो उद्धमधो तिरिय च होति )। अत: थेरवाद में हम दिग-आकाश यह द्विविध भाव नहीं पाते । शब्द को न एक स्वतन्त्र द्रव्य माना है, और न द्रव्य-विशेष का गुण। शब्द चार महामूतों का कार्य है। यह अदृश्य है, किन्तु श्रोत्र विज्ञान का विषय है। धम्मसंगणी में यह विचार कहीं नहीं पाया जाता कि आकाश और श्रोत्र के बीच एक विशेष स्थान है, और न यही पाया जाता है कि प्रत्येक इन्द्रिय का महाभूतविशेष से विशेष संबन्ध है। उदाहरण के लिए सांख्य और वैशे- पिक दर्शन में रूप का तेज से, रस का जल से, गन्ध का पृथिवी से और वायु का स्पर्श से संबन्ध है । कदाचित् इसी आधार पर आकाश का ऐसा ही संबन्ध श्रोत्र से है। श्रोत्रेन्द्रिय को नभोमेश कहा है, जो श्रोत्रविवर-संज्ञक है। धम्मसंगणी में रूप, गन्ध, रस और इनके साथ शब्द चार महाभूतों के कार्य कहलाते हैं | जिस काल में धम्मसंगणी की रचना हुई थी, उस काल में आकाश एक द्रव्यविशेष था, और इसके कारण मूर्त द्रव्य देशस्थ होते थे। दूसरी ओर हमको यह न भूलना चाहिये कि सकल बाह्य जगत् के तुल्य दिक् एक स्कन्ध है, जिसे रूप-स्कन्ध कहते हैं। स्कन्धवाद' की एक बात तो स्पष्ट है कि यह द्रव्य का प्रत्याख्यान है । धर्मों की अनन्त परंपरा है। कोई द्रव्य नहीं है। श्राकाश-धातु इस धर्म का एक रूप है। इसलिए इसका अभिधम्म की सूची में स्थान है। अतः श्राकाश-धातु की कल्पना एक धर्म की है, जो विपरिणामी धर्मों के अनन्त प्रवाह में हुवे हैं। विभाश में श्राकाश-धातु को घसामन्तकरूप कहा है, अर्थात् वह जो अत्यन्त अभिघात करने वाले ( यथा वृक्षादि ) का सामनक रूप है। नागार्जुन के समय में बौद्ध षड्धातु मानते थे:-चार महाभूत, श्राकाश और विज्ञान (मध्यमकवृति, पृ० १२६ )। यदि श्राकाश-धातु के स्थान में वैशेषिको के तीन द्रव्य- श्राकाश, दिक् और काल—का श्रादेश करें, और यदि बौद्धों के विज्ञान के स्थान में आत्मा और मनस् का श्रादेश करें, तो वैशेषिकों के नौ द्रव्य हो जाते हैं । नागार्जुन के व्याख्यान से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्राकाश-धातु का अन्य द्रव्यों में प्राधान्य था, क्योंकि अाकाश-धातु विचार करके और यह दिखला करके कि उसका स्वभाव विरुद्ध है, वह कहते है कि नाफाश धातु के बारे में जो कहा गया है, वह अन्य सब द्रव्यों में लागू होता है। उपनिषदों में भी दिक् का ऐसा ही प्राधान्य है। चन्द्रकीर्ति ( मध्यमकवृत्ति, ५१) कहते हैं कि आकाश अनन्त है, यह अनावरण मात्र स्वभाव है। बहुधर्मवादी बौद्ध श्राकाश को अभाव मानते हैं ( वेदान्तसार, २,२ पर शंकर )। अमाव दो प्रकार का है- (१) बुद्धिपूर्वक, यथा किसी वस्तु के बुद्धिपूर्वक विनाश से उस वस्तु का अभाव, (२) अबुद्धिपूर्वक किसी वस्तु का निरन्तर विनाश, जो चक्षु से नहीं