पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७७

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RE न कर सका । वह भावों को नित्य और अनिल्य द्रव्यों में विभक्त न कर सका, और न न्याय- वैशेषिक के समान संसार की उत्पत्ति का हेतु इन द्रव्यों के अन्योन्य प्रभाव को निर्दिष्ट कर सका । यह किसी अन्य का प्रामाण्य स्वीकार नहीं करता था। इसके लिए शान स्वयं एकमात्र प्रमाण है । अतः पांचवीं-सातवी शताब्दी में इसका उद्देश्य प्रमाणों को निश्चित करना तथा शान की इयत्ता को निर्धारित करना था। इन्होंने इसकी स्वतन्त्र परीक्षा की कि विज्ञान का विषय क्या है, और क्या नहीं है । इन्होंने प्रमाणों की व्यवस्था की। प्रमाण-शान का प्रयोजन सर्व पुरुषार्थ की सिद्धि सम्यग-ज्ञान पूर्वक होती है। अतः उसकी प्रतिपत्ति के लिए न्याय-शास्त्र की रचना हुई है। मानवीय प्रयोजन हेय या उपादेय हैं; वांछनीय या अवांछनीय है। प्रवृत्ति या अर्थक्रिया अर्थ की प्राप्ति और अनर्थ के परिहार के लिए होती है। सम्यग-ज्ञान या प्रमाण वह ज्ञान है, जिसके अनन्तर अध्यक्साय ( निश्चय ) होता है, जिससे पुरुषार्थ की सिद्धि होती है । जो ज्ञान मिथ्या है, उससे अर्थ-सिद्धि नहीं होती। संशय और विपर्यय सम्यग-शान के प्रतिपक्ष हैं। धर्मोत्तर कहते हैं कि सम्यग-ज्ञान द्विविध है। (१) प्राग-भवीय भावनाश्रित ज्ञान, जो श्रापाततः पुरुषार्थ-सिद्धि कराता है। (२) प्रमाणभूत, भावना जो केवल जापक है। बौद्ध-न्याय में इस दूसरे प्रकार के सम्यग्-ज्ञान की समीक्षा की गई है। क्योंकि जिसकी खोज साधारण जन करते हैं, उसी का विचार शास्त्र में होता है । लोग अर्थ-क्रिया के अर्थी होते हैं, अतः वह अर्थ-प्राप्ति के निमित्त अर्थक्रिया-समर्थ वस्तु के ज्ञान की खोज करते हैं । इसलिए सम्यग-ज्ञान अर्थक्रिया-समर्थ वस्तु का प्रदर्शक है । अतः बौद्ध-न्याय में प्रमाणभूत भावना का ही विवेचन किया गया है। जहाँ अर्थक्रिया की सिद्धि प्रापाततः अविचारतः होती है, वहाँ ज्ञान की समीक्षा नहीं हो सकती । जिस शान की समीक्षा हो सकती है, उसे तीन विषयों में विभक्त करते हैं:---प्रत्यक्ष, अनुमान और परार्थानुमान (सिलाजिज्म, शब्दात्मक ) बाह्य वस्तु के ज्ञान का मुख्य प्रभव इन्द्रिय-विज्ञान है। इस ज्ञान के आकार को कल्पना निचित करती है, और इस प्रक्रिया की पूर्ण शाब्दिक अभिव्यक्ति परार्था- नुमान से होती है। अतः इन तीन के अन्तर्गत ज्ञान-मीमांसा और न्याय दोनों है। प्रमाव-फर तया प्रमाण का लक्षण प्रमाण या सम्यक्-शान अविसंवादक ज्ञान है । लोक में उस पुरुष को संवादक कहते हैं जो सत्यभाषी है, और जो पूर्व उपदर्शित अर्थ का प्रापक है । इसी प्रकार वह शान भी संवादक कहा जाता है, जी प्रदर्शित अर्थ का प्रापक है, अर्थात् जो प्रदर्शित अर्थ में प्रवर्तन करता है। सम्यग्-ज्ञान पुरुषार्थ-सिद्धि का कारण है । सम्यक् ज्ञान प्रवृत्ति के विषय का प्रदर्शक है। अर्थ में पुरुष का प्रवर्तन करता है। अधिगत अर्थ में पुरुष प्रवर्तित होता है, और अर्थ प्रापित होता है, अत: अधिगति ही प्रमाण-फल है । इसका अर्थ यह है कि अर्थाधिगम से प्रमाण का व्यापार