पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६७९

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मिसाब इस प्रश्न पर भी मीमांसकों ने विचार किया है। क्योंकि उनको घेद-प्रामाण्य प्रतिष्ठित करना था। मीमांसकों के अनुसार ज्ञान स्वतः सम्यग-शान है, प्रामाण्य-युक्त है। क्योंकि यह शान है, विसंवादक नहीं है । दो ही अवस्थाओं में शान अपवाद के रूप में मिथ्या हो सकता है- १. जब उसका बाधक शान है, या २. जब करण-दोष है। सिद्धान्त स्वतःप्रामाण्य का है; दोष परतः सिद्ध होता है। बौद्धों के अनुसार स्वतःप्रामाण्य नहीं है; परतःप्रामाण्य है; क्योंकि प्रापक ज्ञान प्रमाण है। बौद्धों के अनुसार व्यभिचार संभव है। कारण-गुण के ज्ञान से, संवाद शान से, अर्थक्रिया ज्ञान से हम कह सकते हैं कि यह अविसंवादक ज्ञान है। यद्यपि मीमांसक, वैशेषिक और नैयायिकों की तथा बौद्धों को दृष्टि में साम्य है, तथापि इनमें सूक्ष्म भेद है । पहले दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान-क्रिया कर्ता, अर्थ, उपकरण तथा क्रिया- विशेष से संबन्धित होती है । बब वर्ण-शान होता है, तब श्रात्मा कर्ता है, वर्ण अर्थ है, चक्षुरिन्द्रिय उपकरण है और क्रियाविशेष प्रकाश-रश्मि का चक्षु से विनिर्गत हो अर्थ की ओर जाना, उसका ग्रहण कर श्रात्मा को अंकित करने के लिए लौटता है। इनमें चक्षुरिन्द्रिय साधकतम करण है । यही प्रमाण है। किन्तु बौद्ध क्रिया और ज्ञान के साम्य के आधार पर रचित इस प्रणाली का प्रत्याख्यान करते हैं, क्योंकि वह प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मानते हैं। इन्द्रिय हैं, इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष है, इन्द्रिय-विज्ञान है । श्रात्मा नहीं है, इन्द्रिय का उपकरण नहीं है, अर्थग्रहण नहीं है । विज्ञान और विकल्प में सारूप्य है। वही प्रमाण है; वही प्रमाण-फल | अर्थ का श्राकार के साथ सारूप्य और श्राकार दो मिन्न वस्तु नहीं है। वस्तु सत्ता का दैविष्य दिङ्नाग और धर्मकीति के सिद्धान्त में ज्ञान की व्याख्या के तुल्य वस्तु, परमार्थ-सत् की व्याख्या भी अपूर्व है । वस्तु,परमार्थ-सत् अर्थ क्रिया-सामर्थ्य है । जिसमें यह सामर्थ्य नहीं है, वह अवस्तु है । जो अमि प्रज्वलित और शान्त होती है, वह अमि स्वलक्षण है। अग्नि-संनिधान में स्फुट और असंनिधान में अस्फुट प्रतिभासित होती है । यह परमार्थ-सत् है । जब तक वह वर्तमान और चतुरिन्द्रय-प्राय है, तब तक अमि का प्रकाश-कण भी स्फुट है । जो वह्नि विकल्स का विषय है,जो न प्रज्वलित होती है, और न पाचन-क्रिया करती है,और न प्रकाश देती है, वह अवस्तुक है। यद्यपि विकल्प विषय दृश्य के तुल्य हो, तथापि वह अर्थक्रियाभाव के कारण दृश्य नहीं है। अतीत, भविष्य अवस्तुक है। केवल प्रत्युत्पन्न वस्तु है । विकल्प-विषय, अभाव, बुद्धि-निर्माण, जाति, सामान्य प्रतिमात्र है; केवल स्खलक्षण वस्तु-सत् है । अन्य केवल विकल्प है, शन्द. मात्र है। इनके पीछे किंचिन्मात्र भी वस्तुत्व नहीं है। वस्तु-सत् में विकल्प नहीं होता, अतः यह निविकल्पक है। किन्तु इन दो के बीच एक लोक है, जो परिकल्प से बना है। किन्तु बिसका प्राधार वस्तु-सत् है । इसे संवृति-सत्य कहते हैं। परिकल्प दो प्रकार के हैं-शुद्ध और