पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८२

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पण से उसर क्षण है। इन्द्रिय और विकल्प का मौखिक भेद स्थापित कर प्रमाणवाद को इनके सहकारित्व को समझाने की आवश्यकता पड़ी। इन दोनों को पृथक कर इन्हें पुन: मिलाने के लिए विवश होना पड़ा। पूर्व बीरधर्म में एक वर्णधर्म एक चक्षुधर्म और एक मनोधर्म के हेतु-प्रत्ययवश वर्ण का हान होता है । इन्द्रिय और विकला का भेद स्थापित कर दिङ्नाग ने मन का लोप कर चतुरिन्द्रिय के स्थान में शुद्ध इन्द्रियविज्ञान को रखा। इस प्रकार वर्ण-जान को शुद्ध इन्द्रियविज्ञान के क्षण से समझाया, जिसके अनन्तर विकल्प निर्माण होता है । इन्द्रिय विज्ञान के लिए देश का नियत करना विकल्प का काम हो गया। यह क्षण प्रत्यक्ष और अविकल्प है। पहला क्षण शुद्ध इन्द्रियविज्ञान है। दूसरा क्षण मानस प्रत्यक्ष है । चक्षु का अब व्यापार होता है तब रूपशान चक्षुराश्रित होता है । जब चक्षु का व्यापार उपरत हो बाता है तब मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष होता है । प्रमाकर इन्द्रियविज्ञान के प्रथम क्षण में जैसा स्फुटाभ ज्ञान होता है वैसा उत्तर क्षण में विकल्प निर्माण से नहीं होता। सबिकल्लक ज्ञान अस्फुटाम होता है। योगि प्रत्यक्ष से भाव्य- मान अर्थ का दर्शन योगी को होता है। वह अतीत भविष्यत् को उसी प्रकार जान सकता है, जिस प्रकार वर्तमान को । यह प्रत्यक्ष अलौकिक योगन सन्निकर्ष से जन्य है । इतर प्रत्यक्ष के तुल्य यह भी प्रत्यक्ष है । स्फुटाम होने से निर्विकल्पक है । प्रमाण शुद्ध और अर्थवाही होने से सवादक है। स्वसंवेदन सौत्राविक पोगाचार का मत है कि सर्वशान स्वप्रकाश है। जिस प्रकार दीपक समीप की वस्तुओं को प्रकाशित करता है और साथ ही साथ अपने को भी प्रकाशित करता है, प्रदीप स्वप्रकाश के लिए किसी दूसरे प्रकाश पर निर्भर नहीं रहता उसी प्रकार शान स्वप्रकाश है। के अनुसार ज्ञान का स्वतः प्रत्यक्ष होता है। कुमारिल के अनुसार जान-क्रिया का प्रत्यक्ष नहीं होता। यह शातता या प्राकट्य से अनुमित होती है। ध्याव-वैशेषिक के अनुसार शान प्रत्यक्ष का विषय है, किन्तु इसका स्वतः प्रत्यक्ष नहीं होता, अन्तःकरण अर्थात् मनद्वारा अन्य ज्ञान से होता है । ज्ञान का अनुमान शातता से नहीं होता। एक ज्ञान का प्रत्यक्ष दूसरे ज्ञान से होता है जिसे अनुव्यवसाय कहते हैं। शान पर- प्रकाशक है, स्वप्रकाशक नहीं है । ज्ञान ज्ञानान्तर से वेध है। सोप-योग का मत है कि ज्ञान का प्रत्यक्ष प्रात्मा द्वारा होता है, अन्य ज्ञान से नहीं होता; क्योंकि शान अचेतन है । चित्त स्वप्रकाश नहीं है, क्योकि चित्त श्रात्मा का दृश्य है। जिस प्रकार इतर इन्द्रियों तथा इन्द्रियार्थ स्वप्रकाश नहीं है, क्योंकि वह दृश्य है, उसी प्रकार चिच ( = मन ) मी स्वप्रकाश नहीं है। तब यह अर्थ का प्रकाश कैसे करता है ? सांख्य-योग पुरुष की सक्षा को स्वीकार करता है। यह इसे शाता और भोका मानता है। पुरुष प्रकाश-स्वमाव है । प्रकाश पुरुष का गण नहीं है। स्वाभास पुरुष का प्रतिबिम्ब अचेतन बुद्धि पर पड़ता है