पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६८३

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विद्या मध्याव और यह पुरुष बुद्धि की अवस्था को स्वावस्था के रूप में विपर्यासवश ग्रहीत करता है । पुरुष न अत्यन्त बुद्धि सरूप है और न अत्यन्त विरूप है। यह बुद्धि से भिन्न है। किन्तु यदि पुरुष अत्यन्त सरूप नहीं है तो यह अत्यन्त विरूप भी नहीं है, क्योंकि पुरुष यद्यपि शुद्ध है तथापि बुद्धि में पुरुष के प्रतिसंक्रान्त होने से चैतन्यापन्न बुद्धि की वृत्ति को यह जानता है और अतदाम होते हुए मी उसे तदात्मक के समान गृहीत करता है । बुद्धि बड़ स्वभाव है तथापि स्वामास पुरुष के प्रतिबिंबित होने से यह चैतन्य को प्राप्त करती है। शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाश है । हलवान में आत्मा और उसके गुणों का प्रत्याख्यान है। किन्तु वहाँ भी शान, इन्द्रिय और विषय का त्रिक है । मन-इन्द्रिय या पायतन को भी यह मानता है, जिसके चैतासक-धर्म विषय है। मन विज्ञान-संतति है। यह चैतसिक धर्मों की उपलब्धि स्वतः करता है और बाह्य विषयों का प्रत्यक्ष पंचेन्द्रियों द्वारा करता है। दिमाग इस वाद का प्रत्याख्यान करते हैं। मन नाम का कोई इन्द्रियान्तर नहीं है और सुखाति प्रमेय नहीं है। हीनयान के अन्तर्गत मन के सम्बन्ध में सर्व सम्मत कोई विचार नहीं है। सर्वास्तिवादी मन-इन्द्रिय का बुद्धि से तादाम्य मानता है । इनके अनुसार चित्त, मन और विशान का एक ही अर्थ है। किन्तु थेरवादी विज्ञान के साथ हृदय घातु भी मानते हैं। दिङ्नाग नैयायिकों के मत का विरोध करते हुए कहते हैं कि न्यायसूत्र [१।१।१२] में भी केवल पांच इन्द्रियां गिनाई गई है। किन्तु कात्स्यायन कहते हैं कि मन इन्द्रिय है। ज्ञाता इन्द्रिय द्वारा व्यवसाय करता है, क्योंकि यदि इन्द्रिय-विशेष विनष्ट हो जावे तो अनुव्यवसाय (मैं इस घट के ज्ञान से संयुक्त हूँ ) की उत्पत्ति नहीं होती। पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि श्राप बताइये कि आत्मा और आत्मीय वेदना और संज्ञा की उपलब्धि कैसे होती है। भाज्यकार उत्तर देते हैं यह अन्तःकरण (मन) द्वारा होती है मन इन्द्रिय है, यद्यपि सूत्र में मन का पृथक् उल्लेख है। इसका कारण यह है कि मन इन्द्रिय' पंचेन्द्रिय से कुछ बातों में भिन्न है.। इस सूत्र में भी पठेन्द्रिय मन का निषेध नहीं किया गया है । दिङ्नाग उत्तर देते हैं कि यदि अनिषेध से ग्रहण समझा जावे तो अन्य इन्द्रियों का उल्लेख वृथा है, क्योंकि उनका अस्तित्व सभी मानते हैं। दिङ्नाग अन्तरिन्द्रिय का प्रत्याख्यान करते है और उसके स्थान में मानस-प्रत्यक्ष मानते हैं। सर्व शान प्राय और प्राहक में विभक्त है, किन्तु प्राहक अंश को इसी प्रकार पुनः विभक्त नहीं कर सकते, क्योंकि विज्ञान के दो भाग नहीं होते। अतः स्वसंवेदन को बाह्य प्रत्यक्ष के तुल्य समझना प्रयुक्त है। भोत्तर कहते है कि शान की प्रक्रिया में प्रथम क्षण के अनन्तर विकल्प अनुगमन करता है। निःसन्देह प्रात्मा का गान रूपवेदन होता है, किन्तु इसके अनन्तर विकल्प नहीं