पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६९०

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प्रतिषेध-व्यवहार की सिद्धि पूर्वोक्त दृश्यानुपषिवश होती है, अन्य से नहीं होती। प्रश्न है कि उसी से क्यों होती है। क्योंकि यदि प्रतिपेध्य वस्तु विद्यमान होती तो घश्य की अनुपलन्धि संभव न होती। इसके असंभव होने से प्रतिषेध की सिद्धि होती है। श्रमान- व्यवहार की सिद्धि तब होती है जब प्रतिपत्ता के अतीत या वर्तमान प्रत्यक्ष की निवृत्ति होती है, यदि इसका स्मृतिसंस्कार भ्रष्ट न हो गया हो। अतीत और वर्तमान काल की अनुपलन्धि ही अमाव का निश्चय करती है । अनागत अनुपलब्धि स्वयं संदिग्ध स्वभाव की है। क्योंकि वह प्रसिद्ध है, इसलिए अमाव का निश्चय नहीं करती। अनुपलब्धि के प्रकार भेद अब अनुपलब्धि के प्रकार-भेद बताते हैं। इसके ११ भेद है। यह प्रयोगवश होते हैं। शब्द के अभिधान-व्यापार को प्रयोग कहते है। शब्द कभी साक्षात् अर्थान्तर को सूचित कर अनुपलन्धि को सूचित करता है; कमी प्रतिषेधान्तर का अभिधायी होता है। दृश्यानुपलन्धि सर्वत्र जानी जायगी, चाहे वह शब्द से सूचित न भी हो। अतः वाचक व्यापारभेद से अनुपलन्धि का प्रकार-भेद होता है। स्वरूप-भेद नहीं है। अब प्रकार-भेद बताते हैं- १. प्रतिषेध्य के स्वभाव की अनुपलब्धि। यथा—यहाँ (धर्मी) धुवां नहीं है (साभ्य)। हेतु-क्योंकि उपलब्धि के लक्षण प्राप्त होने पर भी अनुपलब्धि है। २. प्रतिषेध्य के कार्य की अनुपलब्धि । यथा-यहाँ (धर्मी) धूमोत्पत्ति का अनुपहत सामर्थ्य रखने वाले कारण नहीं है (साध्य)। हेतु-क्योंकि धूम का अभाव है। ३. व्याप्य (प्रतिषेध्य) का जो व्यापक धर्म है, उसकी अनुपलब्धि । यथा- यहाँ (घमी) शिशपा नहीं है (साध्य)। हेतु- क्योंकि व्यापक अर्थात् वृक्ष का अभाव है। समान विषय में श्रभावसाधन का यह प्रयोग है। ४. प्रतिषेध्य के स्वभाव के विरुद्ध की उपलब्धि । यथा--यहाँ (धर्मी) शीतका स्पर्श नहीं है (साध्य)। हेतु-क्योंकि यहां अग्नि है। ५. प्रतिषेध्य के जो विरुद्ध है उसके कार्य की उपलब्धि । यथा-यहाँ (धर्मों) शीत का स्पर्श नहीं है (साध्य)। हेवक्योंकि यहाँ धूम है। ६. प्रतिषेध्य के वो विरुद्ध है उससे व्यास धर्मान्तर की उपलब्धि ।