पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६९१

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विश अन्याय यथा- यथा-बात वस्तु का (भूत का) भी विनश्वर स्वभाव (धर्मी ) ध्रुवभावी नहीं- है (साध्य)। हेतु-क्योंकि उनका विनाश हेत्वन्तर की अपेक्षा करता है। ७. प्रतिषेध्य का जो कार्य है उसके जो विरुद्ध है, उसकी उपलब्धि । यथा—यहाँ (धर्मी ) शीतजनन के अनुपहत सामर्थ्य के कारण नहीं है ( साध्व )। हेतु-क्योंकि यहाँ अग्नि है। जहाँ शीतकारण अदृश्य है और शीतस्पर्श अदृश्य है, वहां इस हेतु का प्रयोग होता है। जहां शीतस्पर्श होता है, वहाँ द्वितीय हेतु का प्रयोग करते हैं । जहाँ शीत के कारण दृष्ट होते हैं, वहां प्रथम हेतु का प्रयोग होता है । ८. प्रतुिपेध्य का जो व्यापक है उसके जो विरुद्ध है उसकी उपलब्धि । -यहाँ ( धर्मी ) तुपारस्पर्श नहीं है ( साध्य )। हेतु-क्योंकि यहां अग्नि है। यहाँ तुषारस्पर्श व्याप्य है और शोतस्पर्श व्यापक है । शीतस्पर्श दृश्य नहीं है। ६. प्रतिषेध्य का जो कारण है उसकी अनुपलब्धि। यथा-यहाँ ( धर्मों ) धुश्रा नहीं है ( साध्य )। हेतु-क्योंकि श्रग्नि नहीं है । १०. प्रतिषेध का जो कारण है उसके जो विरुद्ध है उसकी उपलब्धि । यथा---उसके ( धर्मी ) रोमहर्षादि विशेष नहीं है ( साध्य)। हेतु क्योंकि दहनविशेष उसके सन्निहित है। कोई कोई दहन शीतनिवर्तन में समर्थ नहीं होता, जैसे प्रदीप । इसलिए 'दहन-विशेष उक्त है। ११. प्रतिषेध का जो कारण है उसके विरुद्ध है उसका जो कार्य है उसकी उपलनि। यथा - इस देश (धर्मों ) में रोमहर्षादिविशेषयुक्त पुरुष नहीं है ( साध्य )। हेतु-क्योंकि यहाँ धूम है। जब रोमहर्षादिविशेष का प्रत्यक्ष होता है, तो प्रथम हेतु का प्रयोग होता है। जब कारण अर्थात् शीतस्पर्श का प्रत्यक्ष होता है, तब नर्वे हेतु का प्रयोग होता है। जब अग्नि का प्रत्यक्ष होता है, तब दसर्वे हेतु का प्रयोग होता है । जब इन तीनों का प्रयोग नहीं होता, तो ग्यारहवें हेतु का प्रयोग होता है। यदि प्रतिषेष-हेतु एक है, तो प्रभाव के ग्यारह हेतु क्यों वर्णित है.१ प्रथम को छोड़कर शेष दस प्रयोगों का एक प्रकार से प्रथम में अन्तर्भाव है।