पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/८०

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हुई। मैं उनके घर में महीनों रहा हूँ। वह मेरी सदा फिक्र उसी तरह किया करते हैं जैसे माता अपने बालक की। मेरे बारे में उनकी राय है कि मैं अपनी फिक्र नहीं करता हूं, शरीर के प्रति बड़ा लापरवाह हूं। मेरे विचार चाहे उनसे मिले या न मिले उनका स्नेह घटता नहीं। रियासती दोस्ती पायदार नहीं होती, किन्तु विचारों में अन्तर होते हुए भी हम लोगों के स्नेह में फर्क नहीं पड़ा है। पुराने मित्रों से वियोग दुःखदायी है। किन्तु शिष्टता बनी रहे तो संबन्ध में बहुत अन्तर नहीं पड़ता। ऐसी मिसाले हैं, किंतु बहुत कम । नेता का मुझमें कोई भी गुण नहीं है । महत्वाकांक्षा भी नहीं है। यह बड़ी कमी है। मेरी बनावट कुछ ऐसी हुई है कि मैं न नेता हो सकता हूं और न अन्धभक्त अनुयायी । इसका अर्थ नहीं है कि मैं अनुशासन में नहीं रहना चाहता । मैं व्यक्तिवादी नहीं हूं । नेताओं दूर से अाराधना करता रहा हूं। उनके पास बहुत कम जाता रहा हूं। यह मेरा स्वाभाविक सैकोव है। श्रात्मप्रशंसा सुनकर कौन खुरा नहीं होता, अच्छा पद पाकर किसको प्रसन्नता नहीं होती, किंतु मैंने कभी इसके लिए प्रयत्न नहीं किया। प्रान्तीय काँग्रेस कमेटी के सभापति होने के लिए, मैंने अनिच्छा प्रकट की, किंतु अपने मान्य नेतानों के अनुरोध पर खड़ा होना पड़ा। इसी प्रकार जब पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने मुझसे कार्यसमिति में आने को कहा, मैंने इनकार कर दिया किंतु उनके श्राग्रह करने पर मुझे निमंत्रण स्वीकार करना पड़ा। मैं ऊपर कह चुका हूं कि मैं नेता नहीं हूं। इसलिए किसी नये आंदो- लन या पार्टी का प्रारम्भ नहीं कर सकता। सन् १९३४ में जब जयप्रकाशजी ने समाजवादी पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा और मुझे सम्मेलन का सभापति बनाना चाहा तो मैंने इनकार कर दिया। इसलिए नहीं कि समाजवाद को नहीं मानता था, किन्तु इसलिए कि मैं किसी बड़ी जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहता था। उनसे मेरा काफी स्नेह या और इसी कारण मुझे अन्त में उनकी बात माननी पड़ी। सम्मेलन मई सन् १९३४ में हुआ था। बिहार में भूकम्प हो गया था। उसी सिलसिले में विद्यार्थियों को लेकर काम करते गया था। वहाँ पहली बार डाक्टर लोहिया से परिचय हुआ। मुझे यह कहने में प्रसन्नता है कि जब पार्टी का विधान बना तो केवल हाक्टर लोहिया और हम इस पक्ष में थे कि उद्देश्य के अन्तर्गत पूर्ण स्वाधीनता भी होनी चाहिए । अन्त में हम लोगों की विजय हुई। श्री मेहर अली से एक बार सन् १९२८ में मुलाकात हुई थी। बम्बई के और मित्रों को मैं उस समय तक नहीं जानता था। अपरिचित व्यक्तियों के साथ काम करते मुझको घबराहट होती है, किन्तु प्रमन्नता की बात है कि सोशलिस्ट पार्टी के सभी प्रमुख कार्यकर्ता शीघ्र ही एक कुटुम्ब के सदस्य की तरह हो गये यो तो मैं अपने सूबे में बराबर भाषण किया करता था, किन्तु अखिल भारतीय कांग्रेस कमेये में मैं पहली बार पटने में बोला। मौलाना मुहम्मद अली ने एक बार कहा था कि बङ्गाली और मद्रासी काँग्रेस में बहुत बोला करते है, बिहार के लोग नत्र औगे को बोलते देखते हैं तो खिसक कर राजेन्द्रबार के पास जाते है और कहते हैं कि 'रौवा बोली ना,