पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/९९

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प्रथम अध्याय वृक्षों के बीच मेरा बिछौना कर दो। भगवान् लेट गये और एक परिचारक उनको पैखा करने लगा। भगवान् ने कहा कि मेरे परिनिर्वाण का समय आ गया है। यह सुनकर आनन्द को बहुत शोक हुआ और वे विहार में जाकर द्वार के सहारे बैठ गये और विलाप करने लगे । भगवान् ने भिक्षुत्रों से पूछा कि आनन्द कहाँ है ? भिक्षुओं ने उत्तर दिया कि वे विहार में रो रहे हैं। भगवान् ने उनको बुलाने के लिए, एक भिक्षु को भेजा । जब अानन्द आये, तब भगवान् ने कहा-हे आनन्द ! शोक मत करो | क्या मैंने तुमसे नहीं कहा है कि प्रिय वस्तु से वियोग स्वाभाविक और अनिवार्य है ! यह कैसे सम्भव है कि जिसकी उत्पत्ति हुई है, जो संस्कृत और विनश्वर है, उसकी च्युति न हो ? ऐमा स्थान नहीं । तुमने मनसा, वाचा, कर्मणा श्रद्धा के साथ मेरी सेवा की है। तुम अनन्त पुण्य के भागी हो। यह कह कर भगवान् ने मितुओं से आनन्द की प्रशंसा की। भगवान् ने आनन्द मे कहा कि मेरे पश्चात् यदि संघ चाहे, तो विनय के क्षुद्र नियमों को रद्द कर दे । भगवान् भिक्षुओं से बिदा हुए । भगवान् के अन्तिम शब्द ये थे- "सब संस्कार अनित्य है। अपने निर्वाण के लिए बिना प्रमाद के यत्नशील हो । तुम अपने लिये स्वयं दीपक हो, 'अत्तदीपा विहथा दूसरे का सहारा न दो।" श्री रामा में ऐसे भी भिन्नु थे, जिनको अरण्य में खड्ग-विषाण ( गैंडा ) के तुल्य एकान्तवास अधिक प्रिय था। ऐसे भी भिक्षु थे, जो विनय के नियमों के पालन को अधिक महत्त्व देते थे। यह विनयधर कहाते थे। इनमें 'उपालि' सबसे श्रेष्ठ था । प्रथम धर्मसंगीति में उपालि ने ही विनय का संग्रह किया था। ऐसे भी भिन्तु थे जो अभिधर्म-कथा में रस लेते थे; दो भिन्तु एक साथ बैठ कर एक दूसरे से प्रश्न पूछते थे और उत्तर देते थे। ये धर्म-कथिक होते थे । इस प्रकार के भिक्षु अग्रश्रावक मौद्गल्यायन थे । किन्तु जिस प्रकार के भिक्षुओं के कारण बौद्धधर्म दूर-दूर तक फैला और लोकप्रिय हुआ, वे अानन्द की भांति के थे । जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, बुद्ध की दिनचर्या इसी प्रकार की थी। किन्तु धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों बौद्धधर्म पश्चिम की ओर बड़ा, त्यों-त्यों उसकी मूल भारना में परिवर्तन होने लगा। बुद्ध ८० वर्ष तक जीवित रहे; २६ वर्ष की अवस्था में उन्होंने निष्क्रमण किया था। उनके जीवन-काल में बौद्धधर्म कोशल, मगध, कौशाम्बी, पांचाल-कुरु देश में फैला था; पश्रिम में उज्जैन तक गया था। मध्यदेश में ब्राह्मणधर्म का अधिक प्रभाव था। चुल्लवम्ग के बारहवें खन्धक से मालूम होता है कि द्वितीय धर्ममहासंगीति के समय पश्चिम के संध में श्रारण्यकों की संख्या प्रचुर थी; किन्तु पूर्व में वैशाली के प्रदेश में नहीं थी। वैदिक धर्म का प्रभाव कई ब्राह्मण बौद्धशासन में प्रविष्ट हुए । उनके प्रभाव से ब्राह्मणधर्म का प्रभाव बौद्ध- धर्म पर पड़ा । जैसे वैदिकधर्म में चार अान हैं, उसी प्रकार बौद्धों में गृहपति, श्रामणेर (जिसका उद्देश्य श्रमण होना है), भिन्नु और आरण्यक यह चार परिषदें हुई । इसी प्रभाव के कारण बौद्धों में भी वैखानस-व्रत के माननेवाले धुतवादी हो गये। यह धुतंगों का समादान करते थे। हम ऊपर कह चुके हैं कि ये 'धुतंग' वैखानस के व्रत हैं। इनका प्राधान्य हो गया। भिनु और उपासक का अन्तर बढ़ने लगा। ये श्रारण्यक ऋषि और योगी के स्थान में थे।