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८२ : भक्तभावन
 

अस्तोदय विषे

देख्यो दुनिया में दौरि दीरघ तमासो यह। जब लों सुदिन वीर सब लौं करार सब।
आनंद अछेह में सनेह करे गेह तजे। देह कौं गीने न धूप मेह के विचारे सब।
ग्वाल कवि सरस सुधा ते बेन भाखें फेर। अति अभिलाले साखें पूरत अपार सब।
छोटे कहा मोटे है न टोटे के संघाती कोऊ। भये दिन खोटे तब लोटे बन्धु यार सब॥६॥

चार पुरुषार्थ विषे

आय अवनी पे जात जीवन वृथा है बोत। कीन तीन बात ये न समय समाती जिन।
आनकान सान गुनमान सों दरव खान। आन सक्यो नाहि करी कीरति दिखाती जिन।
ग्वाल कवि पत जाम जप में जुर्यो न जाय। जानी जगदीसुरी न जोति सरसाती जिन।
चारु चन्द वदनी के चूमिकें कपोल गोल। खोलिकुच कचुंक लगाई है न छाती जिन॥७॥

मूर्ख राजा विषे

मूरखतें मन लावें सदा अरु मस्खरी में सरदार छये सब।
पातुर को पहुँचावत जे फिर वेई मुसाहब दीह भये सब।
त्यों कवि ग्वाल भले पहुँचैं नहीं बीचन नर्क के बीज वये सब।
है असराफन की गरदी गुन के दरदी उठि भागि गये सब॥८॥

दुर्जन सज्जन विषे

कौल हजार करें कितने फिर एक हूतो तिनमें निबहे ना।
होइ सके न रती भर काम ओ तोलन की भरे साख गहे ना।
त्यों कवि ग्वाल धने इमि दीखत पें न वे पुरूष पसू हुते है ना।
है बिरले नरसो जग में जो कहे सो करे औ करे सो कहेना॥९॥

कवित

होय जो तुरङ्ग ताहि कूदियो शिखावे भले। कैसेकें शिखावे ये पे शीतलाके वाहने।
होय जो सुजान ताहि कविता सुनावे परी। मूरखें सुनावें तो करे जो पेर दाहिने।
ग्वाल कवि कहे करी कुम्भ कौं विदारैं सिंघ जंबुक जमा तन को जोरदार काहने।
मानुषे रिझाऊँ पे रिझाऊँ कौन भाँत ये जो। मानुष को मूरति बनी है बीच पाहने॥१०॥

उज्जम द्रव्य विषे

जिसका जितेक साल भरकें खरच उसके। चाहियें तो दूना पें सवाया तो कमा रहै।
हूर या परीसा नूर नाजनी सहूर वारी। हाजिर हुकम होय तो दिल बथमा रहे।
ग्वाल कवि साहब कमाल इल्म सोहबत हो। यादमें गुसैंया के हमेंश विरमा रहे।
खाने को हमा रहे न काहू की तमा रहे न। गाँठ में जमा रहे तो खातिर जमा रहै॥११॥