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८६ : भक्तभावन
 


पुनः कलि विषे

देखो कलिजू के राजनीत को तमासो यह। वासो कियो आनि हर एक की अकल पें।
खान दान वारे पान दान लिये दौरत है। गान तान वारे बैठि जोवत महल पें।
ग्वाल कवि कहे चार चतुरों को चैन है न। ऐस में रहत लेश कूर चढ़े बल पें।
मलमल घारे जे वे धूरन हैं मलमल। परमल खान वारे सोवे मखमल पें॥३०॥

लंपट व्यभिचारी

माया धारनी तें भाई भैन कहे जासों भै न। काहूकी न होइतासों काको कहि बोले है।
आपसी प्रकृति ताहि मौसी कहि मेले मन। जामें बड़ी मामता हि मामी कहि खोले है।
ग्वाल कवि देखो होनहार को कहत भाभी। कलिके कलंकी ये विचार भरे डोले है।
जैसे तैसे जहां तहां जोई मिले सोई बाल। ह्वै कर निहाल काम के लिये कलोले हैं॥११॥

उदार बाता सोम विषे

बलि सर्वस्व देहि बस्य करि राखे विष्णु। अति उच्चता को अरब चढ़ि सरसात है।
शंकर को रावन नें दे दे शीश शंकरन। भयो तिहूपुर की भयंकर विख्यात है।
ग्वाल कवि रामदे विभीषने लंकेश पद। तोरिलई लंक जाकी अजों बंक घात है।
सुमन को नाव जलहूपें फाटि डूबि जात। दासन की नाव तो पहार चढ़ि जात है॥३२॥

उत्तम मित्रता विषे कवित्त


राम असमसतें तिया लें दशकंध चल्यो। भयो अंतरिक्ष तिय रोदन जु लाख्योई।
जानि निज मित्र सुत वधु को विपक्ष भई। ग्रिहपथ जटायु उडि वन वाक्य माख्योई।
ग्वाल कवि कहे जुट्यो पंजन ते पक्षन तें। चुंच सर तीक्षन तें रहय पहय नाख्योई।
लक्ष लक्ष घाव पृष्ट वक्ष में प्रतक्ष करि। ढ गयो विपक्ष तऊ पक्ष पक्ष राख्योई॥३३॥

पुनः कवित

दशरथ मित्र को तनय राम वे पिछान । ताकी तिया हरो दशकंध दुष्ट होत है।
रोदन सुनत उडि जुट्यो है जटायु गिद्ध। छेदि डार्यो ताको तिन कोनो मंद जोत है।
ग्वाल कवि कहे फेर आय व्हे विपक्ष गिर्यो। निको चहत प्रान छुट्यो श्रोन सोत है।
दुस्सह वचन बानमारिबा तज्यो न तोऊ। जाहर जहान में सुमित्र ऐसे होत है॥३४॥

पुन: कवित्त

जैसो मुख आगें तैसो पीछे तैसौ ताके मरे। सुख दुःख एक सो चरित्र चाहियत है।
बदलौ न चाहे मन गदलो करे न कभू। हर लौं लगे वे में विचित्र चाहिमत है।
ग्वाल कवि सुक्रत सुबुद्धि मिष्ट हित बेनी। निज कुल माहि सों पवित्र चाहियत है।
गिद्धप जटायु को सो प्रन धन सत्य शील। सर्वदा सुखद ऐसो मित्र चाहियत है॥३५॥