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भूमिका : ११
 

में राजकाज संभाला था और सं॰ १८५८ वि॰ में महाराजा की उपाधि धारण की और उनकी मृत्यु सं० १८९६ वि॰ में हुई। अंतर्साक्ष्य के आधार पर 'विजय विनोद' की रचना सं॰ १९०१ वि॰ में पूर्ण हुई। महाराजा शेरसिंह की मृत्यु सं॰ १९०३ वि॰ में हुई। 'विजय विनोद' में महाराजा रणजीतसिंह के राज्य से शेरसिंह के काल तक का, लाहौर दरबार के षड्यंत्रों और युद्धों का कवि ने ऐसा सजीव चित्रण किया है कि कवि ने जैसे सब कुछ अपनी आँखों से देखा हो। ये जीते जागते चित्र महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में ग्वाल की उपस्थिति के प्रबल प्रमाण हैं। परन्तु कवि लाहौर दरबार में किस संवत् में उपस्थित हुआ, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। कवि सं॰ १८९३ वि॰ तक अमृतसर में था। इसके पश्चात् ही कभी वह रणजीतसिंह की मृत्य (सं॰ १८९६ वि॰) के पूर्व लाहौर पहुँचा होगा, जहाँ पर संवत् १८९१ वि॰ तक उसका रहना प्रमाणित होता है। पं॰ चन्द्रकान्तबाली के मतानुसार ग्वाल कवि लाहौर दरबार छोड़कर पुनः नाभा गये थे। राजा जसवंत सिंह को मृत्यु (सं॰ १८९७ वि॰) के उपरांत उनके अठारह वर्षीय पुत्र देवेन्द्रसिंह अपदस्थ कर दिये गये। इसके पश्चात् उनके पुत्र भरपूरसिंह आठ वर्ष की उम्र में ही राजा बनाये गये। बाल भरपूरसिंह के दरबार में रहे और यहीं उन्होंने 'गुरु पचासा' की रचना की। सं॰ १९१७ वि॰ में उन्होंने यहीं रहते हुए भीरहसन को प्रसिद्ध मसनवी 'सिहर उल बयान' का 'इश्क लहर दरयाव' नाम से काव्यानुवाद प्रस्तुत किया। अंतक्ष्यि के आधार पर यह अन्य राजाशा से ही लिखा गया था। अतएव नाभा में कवि बाल दूसरी बार भी रहे, यह प्रमाणित हो जाता है। कवि नवनीत चतुर्वेदी ने लिखा है कि म्वाल ने लाहौर से चलकर पंजाब की सुकेतमंडी में अपना डेरा डाला। वहां के शासक ने उनका स्वागत किया। खाल वहीं रहने लगे और अपने दोनों लड़कों-खूबचन्द और खेमचन्द को भी वहीं बुला लिया। यहाँ ग्वाल को जीविका के लिए एक गांव भी मिला था। कुछ समय पश्रात् ग्वाल खूबचन्द के साथ मथुरा आ गये और खेमचन्द को वहीं मण्डी में गांव आदि के प्रबन्ध के लिए छोड़ दिया। मथुरा आने के बाद ग्वाल कभी-कभी राजपूताने की रियासतों में भी दौरा लगा आते थे। टोंक के नवाब के लिए उन्होंने खड़ी बोली में 'कृष्णाष्टक' की रचना को जिसे उन्होंने खूब पसन्द किया। किन्तु यह प्रमाणित नहीं होता। म्वाल का अन्तिम समय रामपुर में व्यतीत हुमा था। वहाँ के शासक हिन्दी-उर्दू के ज्ञाता और काव्य-मर्मज्ञ थे। नवाबजादा इमदादुल्लाखां 'ताब' वाल के शिष्य हो गये थे। यहीं ग्वाल का देहान्त हुआ जिसका मुंशी अहमद मीनाई 'अमीर' साहब ने अपने ग्वाल विषयक संस्मरणों में उल्लेख किया है।

बंश परिचय

ग्वालजी के दो पुत्र थे––खूबचन्द और खेमचन्द। दोनों ही विवाहित थे। कविता करने की प्रतिभा दोनों में थी। नवनीतजी के अनुसार निःसंतान खूबचन्द की युवावस्था में ही मृत्यु हो गयी थी। खेमचन्द कवि के साथ मण्डी में रहने लगा था। जहां से वह वापिस लौट कर मथुरा नहीं आया। उसकी पत्नी कवि की मृत्यु तक मथुरा में ग्वाल की हवेली में ही रही किन्तु उसके भी कोई सन्तान नहीं थी। अतएव ग्वाल का वंश आगे नचल सका।