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१८ : भक्तभावन
 

गोपिन के काज जोग साज दै पठायो ऊधौ
आवत न लाज डीठ प्रानन पियौ चहै।
बरी ही वियोग-बिरहाग्नि भभूकन में,
ता पर सलूक लूक लाखन दियौ चहै।
ग्वाल कवि कान्हर की कौन कुटिलाई कहै
जरै पै लगावै नोन, काटन हियौ चहै।
कंस की जो चेली, ताको चेला भयो हाय दैया,
हमें भेज सेली चेली आपुन कियौ चहै।

४. राधाष्टक : काव्य की अष्टक परम्परा में यह ग्रन्थ लिखा गया है। इसके रचनाकाल का कोई प्रामाणिक आधार प्राप्त नहीं होता है। 'भक्तभावन' में यह रचना 'गोपी पचीसी' के बाद संकलित है। यह भक्तिकाव्य है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि यद्यपि कवि ने राधारानी के वर्णन में रीतिकालीन तामझाम और उपकरण ग्रहण किये हैं फिर भी उसका एकमात्र लक्ष्य और उद्देश्य राधा की स्तुति ही रहा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है :––

राधा महारानी मनि मन्दिर विराजमान,
मुकुर मयंक से जहाँ जड़ावकारी में।
बावले बनाव के बिछौने बिछे बेसुमार,
बोजुरी बिरी बनाय देत बलिहारी में।
ग्वाल कवि सुमन सुगन्धित केसर ले ले,
सची सुकुमार सो सुंघाये शोम भारी में।
दारा देवतान को दिमाकदार दिस दिस,
द्वार-द्वार दौरि फिरे खिदमतदारी में।

५. कृष्णाष्टक : यह रचना भी काव्य की अष्टक परम्परा में श्री कृष्ण को लक्ष्य करके रची गयी है। इसके रचना काल का भी कोई आधारभूत प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। किन्तु बजभाषा काव्य के प्रसिद्ध विद्वान् प्रभुदयाल मित्तल का मत है कि ग्वाल ने इसकी रचना टोंक के नवाब के लिए की थी। किन्तु टोंक दरबार में भी इसका कोई आलेख-प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है और न ही कोई अन्तक्ष्यि इस बात को प्रमाणित करने के लिए ही प्राप्त होता है। अतएव यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसकी रचना कब और किसके लिए की गयी होगी।" इसमें आठ कवित्त हैं जिनका अन्तिम चरण सर्वत्र एक जैसा है :––

"चार सर वाले से कारिंदे हैं जिसी के वही
 बंदे पे मेहरबान नजर बुलन्द है।"

अनुमान है कि ग्वालजी ने यह रचना समस्यापूर्ति के रूप में को होगी। उस समय राजदरबारों में आशुकवियों द्वारा समस्या पूर्ति की प्रथा भी प्रचलित थी। इसमें उर्दू, फारसी मिश्रित खड़ी बोली को ब्रजभाषा के परम्परागत छन्द कवित्त में ढालने का सफल और स्तुत्य प्रयास कवि ने किया है। खड़ी बोली के प्रयोग तथा विकास की दृष्टि से इस रचना का एक विशेष महत्व स्वीकार किया जा सकता है।